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Showing posts with the label राजस्थान के हस्तशिल्प

राजस्थान में शिल्प की अनूठी परंपरा से युक्त पांच दिवसीय शिल्प शाला

राजस्थान में शिल्प की अनूठी परंपरा से युक्त पांच दिवसीय शिल्प शाला सोमवार २४ जून को भारतीय शिल्प संस्थान और उद्यम प्रोत्साहन संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित पांच दिवसीय शिल्प शाला का उद्घाटन जयपुर के भारतीय शिल्प संस्थान परिसर में प्रदेश के जाने माने शिल्प गुरूओं और 150 से अधिक जिज्ञासुओं उपस्थिति में किया गया। 200 रुपये पंजीयन शुल्क को छोड़कर यह शिल्प शाला पूरी तरह निःशुल्क रखी गई।  पांच दिवसीय शिल्प शाला में निम्नांकित शिल्प गुरू द्वारा शिल्प की बारीकियों का प्रशिक्षण दिया जायेगा - कुंदन मीनाकारी के नेशनल अवार्डी सरदार इन्दर सिंह कुदरत मीनकारी में राज्य स्तरीय पुरस्कार प्राप्त प्रीति काला मिनिएचर पेंटिंग में नेशनल अवार्डी बाबू लाल मारोठिया लाख शिल्प में नेशनल अवार्डी ऎवाज अहमद मिट्टी के बर्जन/टेराकोटा में राधेश्याम व जीवन लाल प्रजापति ब्लू पॉटरी में संजय प्रजापत और गौपाल सैनी ज्वैलरी वुडन क्राफ्ट में भावना गुलाटी हाथ ठप्पा छपाई में नेशनल अवार्डी संतोष कुमार धनोपिया हैण्ड ब्लॉक प्रिंटिंग में नेशनल अवार्डी अवधेश पाण्डेय पेपरमैशी में सुमन सोनी

हाथकरघा बुनकरों को राज्य व जिला स्तर पर दिए जाएंगे नकद पुरस्कार

हाथकरघा बुनकरों को राज्य व जिला स्तर पर दिए जाएंगे नकद पुरस्कार- राज्य के हाथकरघा बुनकरों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य एवं जिला स्तर पर नकद पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। जिला स्तरीय पुरस्कारों के लिए जिले के महाप्रबंधक जिला उद्योग केन्द्र के कार्यालय में 30 जून तक आवेदन किए जा सकते हैं। जिला स्तरीय पुरस्कारों के लिए चयनित प्रथम व द्वितीय पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं में से राज्य स्तरीय पुरस्कारों के लिए चयन किया जाएगा। राज्य स्तरीय पुरस्कारों के लिए जिला उद्योग केन्द्रों द्वारा आयुक्त उद्योग विभाग के कार्यालय में नाम भेजे जाएंगे। जुलाई में राज्य स्तरीय पुरस्कारों का भी चयन किया जाएगा।    उद्योग व राजकीय उपक्रम मंत्री श्री परसादी लाल मीणा ने बताया कि राज्य स्तरीय पुरस्कारों में पांच नकद पुरस्कार दिए जाएंगे। इनमें पहले पुरस्कार के रुप में 21 हजार रु., 11 हजार रु. द्वितीय पुरस्कार, 7100 रु. तृतीय पुरस्कार और दो बुनकरों को 3100-3100 रु. सांत्वना पुरस्कार के रुप में दिए जाएंगे। इसी तरह से जिला स्तर पर दिए जाने वाले पुरस्कारों मे 5100 रु. का नकद पुरस्कार पहले

Fabulous Koftgiri art of Rajasthan - राजस्थान की बेहतरीन कोफ़्तगिरी कला

Koftgiri art of Rajasthan - राजस्थान की कोफ्तगिरी कला कोफ़्तगिरी एक पारंपरिक शिल्प है जिसका अभ्यास वर्षों से मेवाड़ के विभिन्न जिलों में किया जाता रहा है। वर्तमान यह शिल्प जयपुर, अलवर और उदयपुर में दृष्टिगोचर होता है। जयपुर में, आयात-निर्यात बाजार में कोफ़्तगिरी शिल्प के आर्टिकल्स देखे जा सकते हैं जबकि, उदयपुर में इसके क्लस्टर पाए जाते हैं। अलवर के तलवारसाज लोग इस कला से जुड़े हुए हैं। उदयपुर के सिकलीगर लोग इस कला में महारत रखते हैं। कोफ़्तगिरी एक मौसमी शिल्प नहीं है, बल्कि एक बार किसी कलाकार को जब इसमें उचित गुणवत्ता हासिल हो जाती है तो उसके कोफ़्तगिरी के उत्पाद की अत्यधिक मांग हो जाती है, जो वर्षभर बनी रहती है। कोफ़्त गिरी हथियारों को अलंकृत करने की कला है, जो भारत में मुगलों के प्रभाव के कारण उभरी थी। इसमें जडाव (इनले) और ओवरले दोनों प्रकार की कला का कार्य होता है। फौलाद अथवा लोहे पर सोने की सूक्ष्म कसीदाकारी कोफ्त गिरी कहलाती है। कोफ़्तगिरी शब्द लोहे को "पीट-पीट कर" उस पर किसी कलात्मक पैटर्न को उभारने की क्रिया को कहते हैं। यह एक ओवरले कला है जिसमे विशेष

Terracotta art of Rajasthan- राजस्थान की मृण कला - राजस्थान की टेराकोटा कला

राजस्थान राज्य का सम्पूर्ण भू-भाग मृण कलाओं के लिए विशेष रूप से जाना जाता है तथा इनमें जैसलमेर का पोकरण, मेवाड़ का मोलेला व गोगून्दा तथा ढूंढाड़ व मेवात स्थित हाड़ौता व रामगढ़ की मिट्टी की कला की प्रसिद्धि देश में ही नहीं, अपितु विदेशों तक में फैली हुई है। मेवाड़ स्थित आहाड़ सभ्यता, गिलूण्ड, बालाथल आदि के साथ ही हनुमानगढ़ का कालीबंगा एैसे स्थल रहे है जो पुरासम्पदा के रूप में माटी की कला, मोहरे, मृदभाण्ड व मृणशिल्प आदि राज्य के पुरा कला वैभव की महता को रेखांकित करते हैं। मोलेला की मृणकला (Terracotta art of Mollela, Rajsamand)- राजसमन्द जिले के मोलेला गाँव की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान माटी से लोक देवी-देवताओं की हिंगाण ( देवताओं की मूर्तियाँ) बनाने के रूप में हैं। मोलेला गांव नाथद्धारा से लगभग 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मोलेला गांव का मृण शिल्प या कह सकते है टेराकोटा आर्ट विश्व प्रसिद्ध है। यहां के मृण शिल्पकार विविध प्रकार के लोक देवी-देवताओं का माटी में रूपांकन करते हैं, जिन्हें मेवाड़ के साथ ही गुजरात व मध्यप्रदेश की सीमाओं पर स्थित आदिवासी गांवों के लोग खरीदकर ले जाते ह

राजस्थान की पहचान - कोटा डोरिया या मसूरिया साड़ी

कोटा ने बीते दशक में देश-दुनिया में अपनी विशेष पहचान कायम की है। यहां के कुछ विशेष उत्पादों ने देश-दुनिया में धूम मचा दी। इन्हीं में से एक कोटा डोरिया साड़ी ने तो कोटा को विश्व स्तर पर पहचान दिलाई है। कोटा डोरिया ने कोटा की ख्याति में चार चांद लगाए हैं। कोटा जिले के कैथून कस्बे के बुनकरों के इस हुनर के परदेशी भी कायल हैं। महिलाएं कोटा डोरिया की साडियों को बेहद पसंद करती हैं। कैथून की साडियों व अन्य उत्पादों की देश के कोने-कोने में अच्छी मांग है। कैथून में करीब चार हजार लूम हैं। उच्च गुणवत्ता की कोटा डोरिया मार्का की साड़ियों का निर्माण करना यहाँ के बुनकरों का पुस्तैनी काम है । ये कई पीढ़ियों से अपने हथकरघों (लूम्स) पर बुनाई का काम करते आ रहे है। हथकरधा पर ताना-बाना से निर्मित की जाने वाली इन साड़ियों को तैयार करने में बुनकर विशेष रूप से सिल्वर गोल्डन जरी , रेशम , सूत , कॉटन के धागों का मिश्रित रूप से उपयोग करते है। ये उच्च गुणवत्ता के धागे मुख्यतः बेंगलूरू (कर्नाटक) सूरत (गुजरात) , कोयम्बटूर (तमिलनाडु) से मंगवाये जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोटा डोरिया के कपडे व अन्य

राजस्थान की जयपुरी रजाइयां

राजस्थान के जयपुर की रजाईयां अपनी विशेषताओं के कारण उपभोक्ताओं द्वारा काफी पसंद की जाती है और इनके हल्के वजन, कोमलता एवं गर्माहट की खासियत के लिये इनकी भरपूर सराहना की जाती है। राजस्थान की इन जयपुरी रजाईयों की व्यापक एवं भरपूर रेंज उपलब्ध होती हैं। जयपुरी रजाईयों बुनकरों का वंशानुगत व्यवसाय है और इसे वे पिछली कई पीढ़ियों से करते आ रहे हैं। जयपुर के जुलाहा सर्दी के मौसम में घरेलू उपयोग में आने वाले सभी प्रकार के उत्पादों को बनाते हैं, लेकिन रजाई बनाने में उन्हें विशेष योग्यता प्राप्त है। सर्दियों में दैनिक उपयोग के लिये रजाई की उच्च गुणवत्ता का उत्पादन उनकी विशेष पहचान है। रजाईयों को बनाने के लिए बेहतरीन सामग्री का उपयोग किया जाता है वजन में हल्की होने के बावजूद ये बहुत ही गर्म और आरामदायक होती है। इनको बनाने में उच्च श्रेणी की शुद्ध एवं गुणवत्तापूर्ण कपास का प्रयोग किया जाता है। यहाँ सादी, सारंग, फेंसी कपास, कढ़ाई, पिपली काम आदि की कई वर्षों से बनाई जा रही रजाइयां 1000 से लेकर 18000-20000 रुपये तक की रेंज में उपलब्ध होती हैं। विशेष आदेश पर उच्चकोटि की विशेष कपास से बनाई गई रजाई इतन

राजस्थान के उद्योग विभाग द्वारा स्वीकृत क्लस्टर

इकाइयों के ऐसे भौगोलिक जमाव (नगर या कुछ सटे गांव और उनसे लगते हुए क्षेत्र) को क्लस्टर (जमघट) कहते हैं, जो लगभग एक ही तरह के उत्पाद तैयार करते हैं तथा जिन्हें समान अवसरों और खतरों का सामना करना पड़ता है। हस्तशिल्प या हथकरघा उत्पादों को तैयार करने वाली पारिवारिक इकाइयों के भौगोलिक जमाव (गांवों,कस्बों) को आर्टिशन क्लस्टर कहते हैं। 1. गोटा लूम व गोटा लेस क्लस्टर, अजमेर 2. प्रस्तर कलाकृति क्लस्टर, डूंगरपुर 3. मूतिर्कला (मार्बल मूर्ति) क्लस्टर , गोला का बास (थानागाजी ), अलवर 4. सेंड स्टोन उत्पाद क्लस्टर, पिचुपाड़ा, दौसा 5. कांच कशीदा क्लस्टर, धनाऊ (बाड़मेर) 6. शहद क्लस्टर, भरतपुर 7. आरी - तारी जरदोजी वर्क क्लस्टर, नायला (जयपुर) 8. चर्म जूती क्लस्टर , भीनमाल (जालौर) 9. स्टोन क्लस्टर, जैसलमेर 10. काष्ठ कला (कावड़ व अन्य लकड़ी उत्पाद) क्लस्टर, बस्सी, चित्तौड़गढ़ 11. कोटा डोरिया साड़ी क्लस्टर, कोटा 12. रंगाई-छपाई (फेंटिया, चूंदड़ी, साड़ी, बेडशीट व चादर) क्लस्टर, आकोला (चित्तौड़) 13. चर्म रंगाई एवं चर्म उत्पाद क्लस्टर, बानसूर (अलवर) 14. हथकरघा (खेस, टॉवेल, गमछे, चादर, ड

राजस्थान की सैकड़ों वर्ष पुरानी है अद्भुत ‘कावड़-कला’ - Hundreds of years old amazing 'Kavad-art' of Rajasthan

भारत में रंग-बिरंगे स्क्रॉल व बक्से, पाठ, नृत्य, संगीत, प्रदर्शन या सभी के संयोजन का उपयोग करके आवाज और हावभाव की मदद से कहानियाँ सुनाना एक समृद्ध विरासत रही है। यह हमारी संस्कृति और हमारी पहचान को परिभाषित करता है। कावड़ बांचना’ नामक कहानी कहने की एक मौखिक परंपरा अभी भी राजस्थान में जीवित है, जिसमें महाभारत और रामायण की कहानियों के साथ-साथ पुराणों, जाति वंशावली और लोक परंपरा की कथाएँ बांची जाती हैं। कावड़ एक पोर्टेबल लकड़ी का मंदिर होता है, जिसमें इसके कई पैनलों पर दृश्य कथाएं चित्रित होती हैं, जो एक दूसरे के साथ जुड़े होते हैं। ये पैनल एक मंदिर के कई दरवाजों की तरह खुलते और बंद होते हैं। पैनलों पर दृश्य देवी-देवताओं, संतों और स्थानीय नायकों आदि के होते हैं।  हालांकि भारत की कई मौखिक परंपराओं की तरह, कावड़ बांचने की उत्पत्ति में भी पौराणिक कथाओं या रहस्यमय शक्तियों को उत्तरदायी माना जाता है। कावड़ परंपरा को लगभग 400 साल पुरानी परंपरा मानते हैं। इस पोर्टेबल धार्मिक मंदिर के ऐतिहासिक प्रमाण कुछ धार्मिक ग्रंथों में मौजूद हैं, लेकिन कावड़ के बारे में कोई स्पष्ट सं