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Portraiture of Rasikpriya books in Mewar - मेवाड़ में रसिकप्रिया ग्रंथों का चित्रांकन-

मेवाड़ में रसिकप्रिया ग्रंथों का चित्रांकन मेवाड़ में महाराणा जगत सिंह प्रथम , महाराणा अमर सिंह द्वितीय एवं महाराणा जय सिंह के काल में रसिकप्रिया ग्रन्थ का चित्रांकन किया गया। रसिक प्रिया नामक पद्यात्मक ग्रन्थ की रचना ब्रज भाषा के कवि केशव दास ने ओरछा नरेश के भाई महाराजा इन्द्रजीत सिंह के राज्याश्रय में 1591 ई. में की थी। इस महान रचना का विषय श्रृंगार के दोनों पक्ष संयोग और वियोग है। राधा कृष्ण की प्रेमलीला के लौकिक एवं आध्यात्मिक रहस्यों का उद्घाटन जयदेव के गीत गोविन्द के पश्चात् रसिक प्रिया में ही हुआ है। 16 वीं सदी में रचित इस ग्रन्थ की ख्याति शीघ्र ही दूर-दूर तक फैल गई और 17 वीं शताब्दी के मध्य तक यह राजस्थान में विभिन्न चित्र शैलियों के चित्रांकन की विषय वस्तु बन गया। मेवाड़ के अलावा मारवाड़, बूंदी, एवं बीकानेर शैलियों में भी रसिक प्रिया पर आधारित चित्र निर्मित हुए हैं। मेवाड़ में सर्वप्रथम महाराणा जगत सिंह प्रथम के काल में रसिक प्रिया का चित्रांकन हुआ। उदयपुर के राजकीय संग्रहालय में कृष्ण चरित्र के 327 लघु चित्र है, जिनमें सूरसागर का संग्रह भी है। इसी संग्रह में रसिक प्

Miniature Drawing Style of Rajasthan
राजस्थान की लघु चित्र शैली (मिनीएचर आर्ट)-


        भारत में लघु चित्रकारी कला या मिनीएचर आर्ट का प्रारम्‍भ मुगलों द्वारा किया गया जो मुगल शैली के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस प्रसिद्ध कला को फ़राज (पर्शिया या ईरान) से लेकर आया जाना माना जाता है। सर्वप्रथम मुगल शासक हुमायूं ने फ़राज से लघु चित्रकारी में विशेषज्ञ कलाकारों को बुलवाया था। उनके उत्तराधिकारी मुगल बादशाह अकबर ने इस भव्‍य कला को बढ़ावा देने के लिए एक शिल्‍पशाला भी बनवाई थी। इन कलाकारों ने भारतीय कलाकारों को इस कला का प्रशिक्षण दिया जिन्‍होंने मुगलों के राजसी जीवन-शैली से प्रभावित होकर एक नई तरह की शैली के चित्र तैयार किए।      मुगल शैली के चित्रकारों को बादशाह जहाँगीर एवं शाहजहाँ ने भी भरपूर प्रश्रय दिया। भारतीय कलाकारों द्वारा इस खास शैली में तैयार किए गए लघु चित्रों की राजपूत अथवा राजस्‍थानी लघु चित्रशैली कहा जाता है। मुगलकाल में राजस्थान में इस चित्रकला के कई स्कूल प्रारंभ हुए। भौगोलिक स्थिति, सांस्कृतिक एवं शैलीगत विशेषताओं के आधार पर इन स्कूलों को निम्नांकित चार भागों में विभाजित किया जाता है- 1. मेवाड़ स्कूल- चावंड, उदयपुर, नाथद्वारा, देवगढ़, डूंगरपुर, बाँसवाड़

Painting Schools of Rajasthan-- राजस्थान की चित्रशैलियाँ-3

(साभार - राजस्थान सरकार द्वारा प्रकाशित कैलेण्डर)

राजस्थान की चित्रशैलियाँ-2

(साभार- राजस्थान सरकार द्वारा प्रकाशित कैलेंडर)

राजस्थान की चित्रकला शैलियाँ

  (साभार- राजस्थान सरकार द्वारा प्रकाशित कैलेंडर)

राजस्थान की फड़ कला तथा भोपों का संक्षिप्त परिचय

फड़ लंबे कपड़े पर बनाई गई कलाकृति होती है जिसमें किसी लोकदेवता (विशेष रूप से पाबू जी या देवनारायण) की कथा का चित्रण किया जाता है। फड़ को लकड़ी पर लपेट कर रखा जाता है। इसे धीरे धीरे खोल कर भोपा तथा भोपी द्वारा लोक देवता की कथा को गीत व संगीत के साथ सुनाया जाता है। राजस्थान में कुछ जगहों पर जाति विशेष के भोपे पेशेवर पुजारी होते हैं। उनका मुख्य कार्य किसी मन्दिर में देवता की पूजा करना तथा देवता के आगे नाचना-गाना होता है। पाबू जी तथा देवनारायण के भोपे अपने संरक्षकों (धाताओं) के घर पर जाकर अपना पेशेवर गाना व नृत्य के साथ फड़ के आधार पर लोक देवता की कथा कहते हैं। राजस्थान में पाबूजी तथा देव नारायण के भक्त लाखों की संख्या में हैं। इन लोक देवताओं को कुटुम्ब के देवता के रूप में पूजा जाता है और उनकी वीरता के गीत चारण और भाटों द्वारा गाए जाते हैं। भोपों ने पाबूजी और देवनारायण जी की वीरता के सम्बन्ध में सैंकड़ों लोकगीत रचें हैं और इनकी गीतात्मक शौर्यगाथा को इनके द्वारा फड़ का प्रदर्शन करके आकर्षक और रोचक ढंग से किया जाता है। पाबूजी के भोपों ने पाबूजी की फड़ के गीत को अभिनय के साथ गाने की एक विशेष शै

राजस्थान के प्रसिद्ध चित्र संग्रहालय और उनके स्थान

1. पोथीखाना- जयपुर 2. पुस्तक प्रकाश- जोधपुर 3. सरस्वती भंडार- उदयपुर 4. जैन भंडार- जैसलमेर 5. चित्रशाला- बूँदी 6. माधोसिंह संग्रहालय- कोटा 7. अलवर संग्रहालय- अलवर

Pichwayi Art of Nathdwara | नाथद्वारा की पिछवाई चित्रकला

Pichwayi Art of Nathdwara | नाथद्वारा की पिछवाई चित्रकला राजस्थान में उदयपुर से करीब 50 किमी दूर राजसमंद जिले में स्थित छोटा - सा धार्मिक नगर 'नाथद्वारा' पुष्टिमार्गीय वल्लभ संप्रदाय की प्रमुख पीठ है। यहाँ की प्रत्येक सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधि पर पुष्टिमार्ग का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। नाथद्वारा शैली की चित्रकला तो पूर्णरूपेण पुष्टिमार्ग से ओतप्रोत है। नाथद्वारा की चित्र शैली का उद्भव भी श्रीनाथजी के नाथद्वारा में आगमन के साथ ही माना जाता है। नाथद्वारा चित्रशैली का सबसे महत्वपूर्ण अंग है - पिछवाई चित्रकला। पिछवाई शब्द का अर्थ है पीछेवाली। पिछवाई चित्र आकार में बड़े होते हैं तथा इन्हें कपड़े पर बनाया जाता है। नाथद्वारा के श्रीनाथजी मंदिर तथा अन्य मंदिरों में मुख्य मूर्ति के पीछे दीवार पर लगाने के लिये इन वृहद आकार के चित्रों को काम में लिया जाता है। ये चित्र मंदिर की भव्यता बढ़ाने के साथ - साथ भक्तों को श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र की जानकारी भी देते हैं। चटक रंगों में डूबे श्रीकृष्ण की लीलाओं के दर्शन कराती ये पिछवाईयां आगंतुकों को अपनी ओर सहसा आकर्षित करती है। श्री