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मौर्य कालीन कला | Art of Mauryan period

मौर्य कालीन कला Art of Mauryan period  ईसा-पूर्व छठी शताब्दी में गंगा की घाटी में बौद्ध और जैन धर्मों के रूप में नए धार्मिक और सामाजिक आंदोलनों की शुरूआत हुई। ये दोनों धर्म श्रमण परंपरा के अंग थे। दोनों धर्म जल्द ही लोकप्रिय हो गए क्योंकि वे सनातन धर्म की वर्ण एवं जाति व्यवस्था का विरोध करते थे। उस समय मगध एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा और उसने अन्य राज्यों को अपने नियंत्रण में ले लिया। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी तक मौर्यों ने अपना प्रभुत्व जमा लिया था और ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी तक भारत का बहुत बड़ा हिस्सा मौर्यों के नियंत्रण में आ गया था। मौर्य सम्राटों में अशोक एक अत्यंत शक्तिशाली राजा हुआ, जिसने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बौद्धों की श्रमण परंपरा को संरक्षण दिया था। धार्मिक पद्धतियों के कई आयाम होते हैं और वे किसी एक पूजा विधितक ही सीमित नहीं होतीं। उस समय यक्षों और मातृदेवियों की पूजा भी काफ़ी प्रचलित थी। इस प्रकार पूजा के अनेक रूप विद्यमान थे। तथापि इनमें से बौद्ध धर्म सबसे अधिक सामाजिक और धार्मिक आंदोलन के रूप में लोकप्रिय हो गया। यक्ष पूजा बौद्ध धर्म के आगमन से पहले और उसके बाद

राजस्थान में यहाँ होता हैं मकर संक्रांति पर दड़ा खेल Dara game is played on Makar Sankranti here in Rajasthan

राजस्थान में यहाँ होता हैं मकर संक्रांति पर दड़ा खेल - मकर संक्रांति पर बूंदी के बरूंधन गांव में 5 किलो वजनी बॉल से खेला जाता है दड़ा खेल राजस्थान के बूंदी जिले में बरूंधन में सामाजिक समरसता के प्रतीक पारंपरिक 'दड़ा खेल' बिना रेफरी के साथ खेला जाने वाला स्वअनुशासित खेल हैं। रियासतकाल से पिछले 800 साल से बेहद रोचक इस खेल की अनोखी परंपरा निभाई जा रही है, जिसमें पत्थर को टाट में लपेटकर और रस्सियों से गूंथ कर बनाई गई 5 किलो वजन जितनी भारी बॉल से दड़ा नामक खेल खेला जाता है, जिसके लिए 12 गांवों की दो टीमें बनती हैं और उसके बाद सामूहिक रूप से हाड़ा वंशजों के पास जाकर इसे खेलने की अनुमति ली जाती है। इस पर हाड़ा वशंज उन्हें प्रतीक रूप में शराब पीला कर कर दड़ा खेलने की अनुमति देते हैं। लक्ष्मीनारायण मंदिर भगवान के आंगन को साक्षी मानते हुए संक्रांति पर एक अनूठी दड़ा (फुटबॉल) खेल की विशिष्ट परंपरा राजस्थान के बूंदी जिले के बरूंधन गांव में सदियों से चली आ रही है। यह दड़ा वस्तुतः टाट से बनाई गई देसी भारी भरकम बॉल होता है। इस बॉल का वजन करीब 5 किलो होता है। यह दड़ा महोत्सव बेहद रोचक होता है

Haveli Sangeet and Ashtchhap Poet of Pushtimarg | पुष्टिमार्ग का हवेली संगीत और अष्टछाप कवि

संगीत मनुष्य के जीवन का अभिन्न अंग हो गया है। मनुष्य, प्रकृति, पशु-पक्षी सभी मिलकर एकतान संगीत की सृष्टि करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि समस्त ब्रह्माण्ड ही एक सुन्दर संगीत की रचना कर रहा है। वैसे तो जो भी ऐसा गाया या बजाया जाए जो कर्णप्रिय हो संगीत ही होगा किन्तु कुछ निश्चित नियमों में बँधे हुए संगीत को शास्त्रीय संगीत कहा जाता है। शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत अथवा सरल संगीत आदि जो कुछ आज हमें सुनने को मिल रहा है उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में परम्परागत शास्त्रों के विचारों के साथ-साथ 15वीं, 16वीं, 17वीं शताब्दी के मध्यकालीन भक्ति संगीत से अवश्य प्रभावित है। अष्टछाप कवि मध्यकालीन संगीत में अष्टछाप या हवेली संगीत की स्थापना, पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक आचार्य श्री वल्लभाचार्य के पुत्र आचार्य गोस्वामी श्री विट्ठलनाथजी ने श्रीनाथ जी की सेवा करने एवं  पुष्टिमार्ग के प्रचार-प्रसार करने के लिए की थी। 'अष्टछाप' कृष्ण काव्य धारा के आठ कवियों के समूह को कहते हैं, जिनका मूल सम्बन्ध आचार्य वल्लभ द्वारा प्रतिपादित पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय से है। जिन आठ कवियों को अष्टछाप कहा जाता है, व

National Awardees artists of Rajasthan राजस्थान के राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कलाकार

National Awardees artists of Rajasthan राजस्थान के राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कलाकार   S.No. Name of Artist Craft 1 एजाज मोहम्मद Avaz Mohammed   Lac Work लाख वर्क 2 बाबूलाल मारोटिया Babu Lal Marotia  Miniature Paintings लघु चित्रकारी 3 बद्रीनारायण    मारोटिया Badri Narain Marotia    Glass Studded Painting ग्लास जड़ित चित्रकारी 4 Chothmal Jangid चोथमल जांगिड Sandalwood Carving चन्दन काष्ठ नक्काशी 5 Dharmendra Kumar Jangid धर्मेंद्र कुमार जांगिड़ Sandal Wood Carving चन्दन काष्ठ नक्काशी 6 Gayur Ahmed गयूर अहमद Wooden Block Making लकड़ी के ब्लॉक बनाना 7 Gopal Prasad Sharma गोपाल प्रसाद शर्मा Miniature Painting लघु चित्रकारी 8 हनुमान सैनी Hanuman Saini Miniature Painting लघु चित्रकारी 9 हरि नारायण मारोटीया Hari Narayan Marotia Miniature P

Indian Institute of Crafts & Design (IICD), Jaipur

भारतीय शिल्प और डिजाइन संस्थान, IICD जयपुर भारत में अनुमानित 360 शिल्प समूहों के साथ 230 लाख शिल्पकार विभिन्न शिल्प क्षेत्रों में कार्यरत हैं। हस्तशिल्प और हथकरघा क्षेत्र मिलकर लगभग 24,300 करोड़ का उद्योग हैं। भारत के निर्यात को 10,000 करोड़ रु. इस क्षेत्र से आता है। 12 वीं योजना के दस्तावेज़ के अनुसार, शिल्प उद्योग की कुल 1.62 लाख करोड़ रुपये की आय है। भारत सरकार इस उद्योग बढ़ावा देने के दक्ष व्यक्तियों के विकास के लिए विभिन्न रही है। भारतीय शिल्प और डिजाइन संस्थान, IICD जयपुर , ऐसे ही भारत के अग्रणी शिल्प और डिजाइन कॉलेजों में से एक है जो समकालीन सामाजिक-आर्थिक संदर्भ में शिल्प और शिल्पकारों के विकास की दिशा में काम करता है। IICD शिल्प और डिजाइन के क्षेत्र में अद्वितीय रूप कार्य करते हुए स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्री कार्यक्रम संचालित कर रहा है। ये कार्यक्रम विद्यार्थी को शिल्प के संवेदनशील, रचनात्मक डिजाइनर और अभ्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति और समाज को एक वैश्विक नागरिक के रूप में योगदान देने के स्पष्ट लक्ष्यों के साथ के विकसित होने का साधन प्रदान करते हैं। IICD को पहली

राजस्थान में शिल्प की अनूठी परंपरा से युक्त पांच दिवसीय शिल्प शाला

राजस्थान में शिल्प की अनूठी परंपरा से युक्त पांच दिवसीय शिल्प शाला सोमवार २४ जून को भारतीय शिल्प संस्थान और उद्यम प्रोत्साहन संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित पांच दिवसीय शिल्प शाला का उद्घाटन जयपुर के भारतीय शिल्प संस्थान परिसर में प्रदेश के जाने माने शिल्प गुरूओं और 150 से अधिक जिज्ञासुओं उपस्थिति में किया गया। 200 रुपये पंजीयन शुल्क को छोड़कर यह शिल्प शाला पूरी तरह निःशुल्क रखी गई।  पांच दिवसीय शिल्प शाला में निम्नांकित शिल्प गुरू द्वारा शिल्प की बारीकियों का प्रशिक्षण दिया जायेगा - कुंदन मीनाकारी के नेशनल अवार्डी सरदार इन्दर सिंह कुदरत मीनकारी में राज्य स्तरीय पुरस्कार प्राप्त प्रीति काला मिनिएचर पेंटिंग में नेशनल अवार्डी बाबू लाल मारोठिया लाख शिल्प में नेशनल अवार्डी ऎवाज अहमद मिट्टी के बर्जन/टेराकोटा में राधेश्याम व जीवन लाल प्रजापति ब्लू पॉटरी में संजय प्रजापत और गौपाल सैनी ज्वैलरी वुडन क्राफ्ट में भावना गुलाटी हाथ ठप्पा छपाई में नेशनल अवार्डी संतोष कुमार धनोपिया हैण्ड ब्लॉक प्रिंटिंग में नेशनल अवार्डी अवधेश पाण्डेय पेपरमैशी में सुमन सोनी

Rajasthani Traditional Dress Female Chundar or Chundari - राजस्थान की स्त्री वेशभूषा-चूंदड़ या चूंदड़ी

राजस्थान की स्त्री वेशभूषा-चूंदड़ या चूंदड़ी लाल रंग में रंगी विशेष प्रकार की ओढ़नी चूंदड़ या चूंदड़ी कहलाती है। यह ढाई गज लम्बी और पौने दो गज चौड़ी होती है। इसमें विशेष रूप से बंधेज की छोटी-छोटी बिन्दियों से भांति-भांति के अलंकरण किए जाते हैं। इसे चूनरी, बदांगर, कोसनिया आदि नामों से जाना जाता है। राजस्थानी संस्कृति में चूंदड़ का अत्यंत महत्व है। लगभग सभी मांगलिक अवसरों पर इसका प्रयोग होता है। यह सुहागिन स्त्रियों द्वारा विशेष रूप से पहनी जाती है। विवाह में अपने ननिहाल से प्राप्त चूंदड़ी पहनकर वधू सात फेरों को पूर्ण करती हैं, कुछ स्थानों पर यह चूंदड़ी ससुराल पक्ष से पहनाई जाती है। लड़की जब पीहर से ससुराल जाती है तब देहरी पूजते समय चूंदड़ धारण करती है। विवाह के बाद वर्ष भर किसी भी शुभ आयोजन या त्यौहार पर उन्हें वही चूंदड़ी पहनकर विभिन्न रस्मों या पूजा का निर्वाह करना होता है।  विवाह के पश्चात पहली गणगौर पर नववधू को सिंजारे के दिन अपने ससुराल से विशेष चूंदड़ पहनाई जाती है, जिसे पहनकर वह गणगौर की पूजा करती हैं। बहन के बच्चों के विवाह के समय "भात" रस्म में भी भाई अपनी बहन को चूंदड़