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‘‘थेवा कला’’ ने किया है राजस्थान का नाम देश और विदेश में रोशन-

नई दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित किये गए 34 वें अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेले के राजस्थान मण्डप में प्रदेश के विभिन्न सिद्धहस्त शिल्पियों के साथ ही ‘ थेवा-कला ’ से बने आभूषण इन दिनों व्यापार मेला में दर्शकों विशेषकर महिलाओं के लिये विशेष आकर्षण का केन्द्र बने। राजस्थान मण्डप में प्रदेश के एक से बढ़कर एक हस्तशिल्पी अपनी कला से दर्शकों को प्रभावित किया , लेकिन थेवा कला से बनाये गये आभूषणों की अपनी अलग ही पहचान है। शीशे पर सोने की बारीक मीनाकारी की बेहतरीन ‘ थेवा-कला ’ विभिन्न रंगों के शीशों ( काँच) को चांदी के महीन तारों से बनी फ्रेम में डालकर उस पर सोने की बारीक कलाकृतियां उकेरने की अनूठी कला है , जिन्हें कुशल और दक्ष हाथ छोटे-छोटे औजारों की मदद से बनाते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली इस कला को राजसोनी परिवार के पुरूष सीखते हैं और वंश परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। इसी ‘ थेवा-कला ’ से बने आभूषणों का प्रदर्शन व्यापार मेला में ’’ ज्वैल एस इंटरनेशनल ‘‘ द्वारा किया गया , जिसने मण्डप में आने वाले दर्शकों को अपनी ओर लगातार खींचा। थेवा कला की शुरूआत लगभग 300 वर्ष पूर्व राजस

थेवा कला पर प्रकाशित पुस्तक का राज्यपाल द्वारा विमोचन

पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, उदयपुर के पदेन अध्यक्ष राज्यपाल श्रीमती मार्ग्रेट अल्वा ने गुरूवार दिनांक 19 जुलाई 2012 को पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र द्वारा प्रलेखन योजना के अंतर्गत प्रकाशित पुस्तकों ‘‘थेवा कला’’ तथा ‘‘वॉल पेन्टिंग्स ऑफ चारोतर’’ का विमोचन किया। राजस्थान के सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग के सेवानिवृत तथा स्वतंत्र पत्रकार श्री नटवर त्रिपाठी द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘थेवा कला’’ में प्रतापगढ़ की विश्व प्रसिद्ध थेवा कला पर सचित्र उपयोगी जानकारी दर्शाई गई है। इस पुस्तक में थेवा शिल्पकारों से लिए गए साक्षात्कार के माध्यम से थेवा शिल्प सृजन तकनीक तथा उन कलाकारों की उपलब्धियों को उल्लिखित किया गया है। अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इस शिल्पकला पर यह अपने प्रकार का प्रथम प्रकाशन है। पुस्तक के संदर्भ में प्रस्तुत की गई लघु फिल्म में बताया गया कि यह कला लगभग 400 वर्ष पुरानी है। इस कला के 12 शिल्पकारों को आज तक राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत किया जा चुका है। इनमें से 9 शिल्पकार प्रतापगढ के राज सोनी परिवार के हैं। शिल्पकार जगदीश राजसोनी को दो बार राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित कर उन्हें

प्रतापगढ़ की देश विदेश में मशहूर थेवा कला

थेवा कला काँच पर सोने का सूक्ष्म चित्रांकन है। काँच पर सोने की बारीक, कमनीय और कलात्मक कारीगरी को थेवा कहा जाता है। इस कला में चित्रकारी का ज्ञान होना आवश्यक है। इसमें रंगीन बेल्जियम काँच का प्रयोग किया जाता है। काँच पर सोने की परत चढ़ा कर उस पर लघु चित्रकारी एवं मीनाकारी की यह अनूठी व बेजोड़ थेवा कला देश विदेश में अत्यधिक लोकप्रिय है। ‘थेवा कला’ विभिन्न रंगों के कॉंच को चांदी के महीन तारों से बनी फ्रेम में डालकर उस पर सोने की बारीक कलाकृतियां उकेरने की अनूठी कला है। समूचे विश्व में प्रतापगढ़ ही एकमात्र वह स्थान है जहाँ अत्यंत दक्ष 'थेवा कलाकार' छोटे-छोटे औजारों की सहायता से इस प्रकार की विशिष्ट कलाकृतियां बनाते है। इस कला में पहले कॉंच पर सोने की शीट लगाकर उस पर बारीक जाली बनाई जाती है, जिसे ‘थारणा’ कहा जाता है। फिर दूसरे चरण में काँच को कसने के लिए चांदी के महीन तार से बनाई जाने वाली फ्रेम का कार्य किया जाता है, जिसे ‘वाडा’ कहा जाता है। इसके बाद इसे तेज आग में तपाया जाता है। इस प्रकार शीशे पर सोने की सुंदर डिजाईनयुक्त कलाकृति उभर आती है। यह कहा जाता है कि इन दोनों प्रक्रियाओं