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rajasthan gk Grasses of Rajasthan - राजस्थान में पशुचारे के लिए उपयोगी घासें

1. सेवण घास-

सेवण घास का वानस्पतिक नाम: लेसीयूरस सिंडीकस (Lasiurus Sindicus)
सेवण एक बहुवर्षीय घास है। यह पश्चिमी राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में पाई जाती है। यह घास 100 से 350 मिमी. वर्षा वाले क्षेत्रों में पाई जाने वाली एक महत्वपूर्ण घास है। इसमें जड़ तन्त्र अच्छा विकसित होता है, इस कारण यह सूखा सहन कर सकती है। यह कम वर्षा वाली रेतीली भूमि में भी आसानी से उगती है। सेवण का चारा पशुओं के लिए पौष्टिक तथा पाचक होता है। भारत के अलावा यह घास मिश्र, सोमालिया, अरब व पाकिस्तान में भी पाई जाती है। भारत में मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान, पंजाब व हरियाणा में पाई जाती है। राजस्थान में जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, जोधपुर व चूरु जिले में यह अन्य घासों के साथ आसानी से उगती हुई पाई जाती है। इसकी मुख्य विशेषता है कि यह रेतीली  मिट्टी में आसानी से पनपती है, इसी कारण यह थार के रेगिस्तान में बहुतायत से विकसित होती है। इसको घासों का राजा भी कहते हैं। इसका तना उर्ध्व, शाखाओं युक्त लगभग 1.2 मीटर तक लम्बा होता है। इसकी पत्तियां रेखाकार, 20-25 सेमी. लम्बी तथा पुष्प गुच्छा 10 सेमी. तक लम्बा होता है।

सेवण घास की उपयोगिता-

सेवण घास का चारा उच्च गुणवत्ता वाला होता है। सेवण घास गायों के लिए सबसे उपयुक्त व पौष्टिक घास है जो ग्रामीण क्षेत्रों के आसपास चारागाहों में मुख्य रूप से पाई जाती है। इसे पशु बडे़ चाव से खाते हैं। गायों के अलावा भैंस व ऊंट भी इस घास को बहुत पसंद  करते हैं। यह शुष्क क्षेत्रों के सभी पशुओं द्वारा पसन्द किया जाता है। छोटे पशु जैसे भेड़, बकरी आदि इसको पुष्पन के समय बहुत पसन्द करते हैं। सेवण घास से ‘हे‘ भी बहुत अच्छी गुणवत्ता का बनता है। इस घास से 50-75 क्विंटल सूखा चारा प्रति हैक्टेयर पैदा होता है।
परिपक्व अवस्था आने पर इसका तना सख्त हो जाता है तथा तब इसकी गुणवत्ता व पाचकता में भी कमी आ जाती है, इसलिए परिपक्व घास को पशु कम पसन्द करते हैं। शुष्क क्षेत्रों मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान में सेवण घास का सूखा चारा भी बहुत प्रचलित है जिसे सेवण की कुत्तर भी कहते हैं। इसे बड़े पशु जैसे गाय, भैंस व ऊंट बहुत पसन्द करते हैं। सेवण घास का चारागाह स्थापित करने के लिए वर्षा ऋतु सर्वोत्तम रहती है। बरसात के मौसम में बोई गई घास बहुत जल्दी स्थापित होती है तथा पशुओं को चराने के लिए जल्दी उपलब्ध होती है। सेवण घास की बुवाई के लिए 5-7 किलो बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त रहता है। बरसात के मौसम के अलावा फरवरी-मार्च के महीनों में भी इसका रोपण किया जा सकता है। एक बार स्थापित चारागाह कई वर्षों तक बना रहता है तथा यह मृदाकटाव को रोकने में भी सहायक है। स्थापित चारागाह में चराई के लिए वैज्ञानिक विधि सर्वोत्तम रहती है।

सेवण का रासायनिक संघटन-                                                                  

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन10-12
ईथर निष्कर्ष1-2
कच्चा रेशा 30-35
नत्रजन रहित निष्कर्ष 45-50
भस्म10-12

2. अंजन घास -

प्रचलित नाम: बफेल घास (कोलक कटाई)
वानस्पतिक नाम: सेन्क्रस सिलिएरिस
यह शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पाई जाने वाली रेगिस्तान की एक प्रमुख घास है जो बहुत अधिक सूखा सहन कर सकती है। अंजन एक बहुवर्षीय घास है जिसकी ऊंचाई 0.3 से 1.2 मीटर तक होती है। इसकी पत्तियां 2.8 से 24.0 सेमी. लम्बी तथा 2.2 से 8.5 मिमी. चौड़ी होती है। इसका पुष्प गुच्छा सघन होता है तथा इसकी लम्बाई 2.0 से 20 सेमी.होती है। अंजन घास अफ्रीका के शुष्क प्रदेश, मेडागास्कर तथा पूर्वी बर्मा की उत्पत्ति की मानी जाती है। भारत में यह घास राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, गुजरात तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश व तमिलनाडु में प्राकृतिक अवस्था में पाई जाती है। राजस्थान में यह घास बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर एवं बाड़मेर जिलों में पाई जाती है। अंजन घास शुष्क क्षेत्रों (वार्षिक वर्षा 125 मिमी.) से लेकर आर्द्र क्षेत्रों (वार्षिक वर्षा 1250 मिमी.) तक में उग सकती हो तथा रेतीली, दोमट, कंकरीली व पथरीली भूमि में अच्छी उत्पन्न होती है।

अंजन घास की उपयोगिता -

अंजन घास एक बहुत ही रसीली व पौष्टिक घास है। आधे फूल आने की अवस्था में इसकी कटाई की जाए तो इसमे 8-10 प्रतिशत तक प्रोटीन पाया जाता है। इस घास को मुख्यतः काटकर पशुओं को खिलाने के काम में लेते हैं परन्तु चराई के लिए भी उपयुक्त है। इस घास से उत्तम गुणवत्ता का “हे“ मिलता है, क्योंकि इसकी पौष्टिकता पूर्णतः पक जाने तक भी बनी रहती है। इस घास को सभी प्रकार के पशु रूचि से खाते हैं। अंजन घास की फसल से शुष्क प्रदेशों में भी अच्छा हरा चारा प्राप्त होता है। अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में 40-45 क्विंटल तक सूखा चारा प्रति हैक्टेयर प्राप्त होता है। इस घास की बुआई बरसात के मौसम में की जाती है तथा 2-4 साल बाद यह घास अच्छी व लगातार उपज देना प्रारम्भ कर देती है। चारागाह विकसित करने के लिए अंजन घास की बुवाई दिसम्बर व जनवरी माह को छोड़कर साल भर की जा सकती है। इसका अंकुरण 6-7 दिन में होता है तथा एक हैक्टेयर में बुवाई के लिए 4-5 किलो बीज पर्याप्त रहता है। बुवाई के एक साल तक चारागाहों में चराई नहीं करानी चाहिए। दूसरे साल से चराई वैज्ञानिक तरीके से करना उचित रहता है। वैज्ञानिक विधि में चारागाह को चार भागों में बांटकर प्रत्येक भाग में पशुओं को दो हफ्तों में बारी-बारी से चराने के लिए छोड़ना चाहिए। इस विधि से चराने में सर्वाधिक घास का उपयोग होता है।

अंजन घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत में)-                                                                   

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन5-6
ईथर निष्कर्ष1-2
कच्चा रेशा 30-32
नत्रजन रहित निष्कर्ष 50-52
भस्म10-12

3. धामन घास-

प्रचलित नाम: मोडा धामन/काला धामन
वानस्पतिक नाम: सेन्क्रस सेटीजेरस

यह शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पाई जाने वाली एक प्रमुख बहुवर्षीय घास है जिसकी ऊँचाई 0.2 से 0.9 मीटर, पत्तियाँ 20 से 20 सेमी. लम्बी व 1.8 से 6.9 सेमी. चौडी, पुष्प गुच्छ सघन होता है। धामन या काला धामन घास दोमट से लेकर पथरीली भूमि में आसानी से पैदा होती है। यह घास अत्यन्त गर्मी व सूखा सहनशील है तथा कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी चारागाह विकसित करने के लिए सर्वश्रेष्ठ घास है। इस घास की उत्पत्ति अफ्रीका (नील घाटी से लाल सागर), अरब व भारत के शुष्क इलाकों से मानी जाती है। भारत में यह घास पंजाब, राजस्थान व गुजरात तथा हरियाणा के शुष्क इलाकों में पाई जाती है। इस घास के सूखे के प्रति सहनशील होने के कारण जहां 200 मिमी. तक वर्षा हो वहां भी इसे आसानी से उगा सकते हैं। धामन घास राजस्थान में मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान में पाई जाती है। 

धामन घास की उपयोगिता -

धामन घास की बुवाई के लिए मुख्य रूप से बरसात की ऋतु उपयुक्त होती है किन्तु इसकी बुवाई दिसम्बर व जनवरी माह को छोड़कर वर्षभर आसानी से कर सकते हैं। एक हैक्टेयर क्षेत्र में बुवाई के लिए 5 से 6 किलो बीज की आवश्यकता रहती है। चारागाह स्थापित करने के लिए बीजों की बुवाई से एक साल तक चारागाह में चराई नहीं करनी चाहिए। उसके पश्चात सम्पूर्ण क्षेत्रों को चार भागों में बांटकर बारी-बारी से चराई करानी चाहिए। चारागाह स्थापित करने के लिए बीजों के अतिरिक्त पुराने चारागाहों तथा उजड़े हुए चारागाहों का जीर्णोद्वार भी कर सकते हैं। यह घास पशुओं के लिए प्रति हैक्टेयर 40-80 क्विंटल उत्तम व पौष्टिक सूखा चारा प्रदान करती है। इस घास से हरा चारा भी प्राप्त होता है जो उच्च पाचकता युक्त होता है जिसको सभी पशु बड़े चाव से खाते हैं एवं ‘हे‘ के रूप में भी संरक्षित रख सकते हैं। इस घास का चारा सभी पशुओं के खाने योग्य तथा सुपाच्य होता है।

अंजन  घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत)

                                                                   
घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन4-5
ईथर निष्कर्ष1-2
कच्चा रेशा 34-35
नत्रजन रहित निष्कर्ष 43-45
भस्म16-18

4. भूरट घास-

प्रचलित नाम: भुरूट
वानस्पतिक नाम: सेन्क्रस बाईफ्लोरस

भूरट घास पोएसी परिवार की एक वर्षीय घास है जिसे भूरट या भुरूट भी कहते हैं। यह घास शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में मुख्यतः पाई जाती है। इस घास को पशु बीज बनने से पहले चाव से खाते हैं। बीज सूखने के बाद कांटेदार रोये बन जाते हैं, जो पशुओं के मुँह में चुभते हैं, अतः इस घास को कच्ची अवस्था में पशुओं की चराई के काम में ले सकते हैं अथवा कच्ची अवस्था में कांटे बनने से पूर्व काटकर सूखाकर अथवा ‘हे‘ बनाकर भी पशुओं को खिलाने के काम में ले सकते हैं।
यह घास 5 से 90 सेमी लम्बी, पत्तियाँ रेखाकार तथा सरल व एकान्तर अवस्था में रहती है। यह घास मुख्यतः जंगली अवस्था में उगती है अथवा फसलों में खरपतवारों के रूप में देखी जाती है। इस घास को मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान के शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में देखा जाता है। भारत के अलावा यह घास दक्षिणी अफ्रीका व अफ्रीका के सहारा रेगिस्तान के दक्षिणी भागों में जंगली अवस्था में मिलती है।

भूरट घास की उपयोगिता -

भूरट वर्षा ऋतु की एक वर्षीय घास है जिसकोे कच्ची अवस्था में बीज बनने से पूर्व पशुओं को काटकर खिलाने के काम में लिया जा सकता है। यह घास मुख्यतः रेगिस्तानी क्षेत्र में उगती है अतः मृदा क्षरण को रोकने में भी उपयोगी है। घास को कच्ची अवस्था में गाय, भैंस, भेड़, बकरी व ऊँट रूचि से खाते हैं।


भुरट  घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत)-                                                      

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन9-10
ईथर निष्कर्ष1.5-2
कच्चा रेशा 37-40
नत्रजन रहित निष्कर्ष 11-12

5. करड़ घास-

प्रचलित नाम: जरगा/मारवेल/केल/अपंग
वानस्पतिक नाम: डाइकेंथियम एनुलेटम

करड़ घास प्रायः उन क्षेत्रों में आसानी से उगायी जा सकती है जहां वार्षिक वर्षा 350 मिमी. से 2000 मिमी. तक हो। यह घास दोमट से बलुई, जलोढ़ व कच्छारी मृदा में बहुत ही सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है। इस घास की विशेषता है कि यह सूखा तथा लवणता सहन कर सकती है परन्तु अम्लता सहन नहीं कर सकती। यह घास गुच्छेदार ग्रन्थियों युक्त, लम्बे, पतले तने युक्त 60 से 70 सेमी. ऊँची बहुवर्षीय घास है। यह घास उष्ण कटिबन्धिय अफ्रीका, दक्षिणी पूर्वी एशिया (चीन व भारत), आस्ट्रेलिया व पेसीफिक द्वीप समूह में पाई जाती है। यह घास भारत में लगभग सम्पूर्ण मैदानी तथा पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती है तथा अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में बहुत ही आसानी से उगती है।

करड़ घास की उपयोगिता-

यह घास सभी प्रकार के पशुओं गाय, भैंस, भेड़, बकरी व ऊँट आदि को खिलाने के काम में ली जाती है तथा इसकी जड़े गहरी होने के कारण मृदा अपरदन को रोकने में भी सहायक है। यह घास स्वादिष्ट व पौष्टिक होती है। इसके तने हल्के लाल व नीले रंग के होते हैं, जिसकी गांठों पर सफेद रंग के रोएँ होते हैं जिसे पशु बड़े चाव से खाते हैं। इस घास को पशुओं को चराने के लिए अथवा काटकर सूखाकर या हरे चारे के रूप में खिलाने के लिए काम में लेते हैं। इसके अलावा इसके चारे को ‘हे‘ के रूप में संरक्षित भी रख सकते हैं। यह घास प्राकृतिक चारागाहों में मुख्य रूप से मिलती है। इस घास से 30 से 40 क्विंटल सूखा चारा प्रति हैक्टेयर आसानी से प्राप्त होता है। करड़ घास की बुवाई के लिए बरसात का मौसम सबसे उपयुक्त है। इस घास को बसंत ऋतु (फरवरी-मार्च) में भी उगा सकते है परन्तु उपज कम रहती है। राजस्थान में यह घास जहां पर 350 मिमी. के आसपास बरसात होती है आसानी से अच्छी उपज देती है। यह सूखे क्षेत्रों में चारागाह विकसित करने के लिए सर्वश्रेष्ठ घास है। करड़ घास सूखे क्षेत्रों में उत्तम गुणवत्ता का सूखा चारा पैदा करती है।

करड़ घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत) -                                                                 

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन4-5
ईथर निष्कर्ष0.5-1
कच्चा रेशा 35-40
नत्रजन रहित निष्कर्ष 45-50
भस्म9-10

6. ग्रामणा घास-

प्रचलित नाम: बफेल कुटकी/घमरी/ब्लूपेनीक
वानस्पतिक नाम: पेनिकम एन्टीडोटेल

ग्रामणा एक बहुवर्षीय घास है जो 150 सेमी. तक लम्बी होती है। यह विभिन्न तरह की जलवायु व मृदा में पाई जाती है। यह घास बलुई मिट्टी से लेकर चिकनी मिट्टी वाले क्षेत्रों जहां वार्षिक वर्षा 200-900 मिमी. तक होती है बहुतायत से मिलती है। यह घास भारत की उत्पत्ति की है जो लगभग सम्पूर्ण भारत में पाई जाती है। भारत के अलावा यह घास अफगानिस्तान, अरब, आस्ट्रेलिया व पाकिस्तान में पाई जाती है। भारत में मुख्यतः गंगा के ऊपरी मैदान, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात व राजस्थान में मिलती है। यह घास सूखा सहनशील है जो मुख्यतः वर्षा ऋतु में उगती है।

ग्रामणा घास की उपयोगिता -

यह पौष्टिक घास है जिसे सभी पशु मुख्यतः गाय, भैंस, भेड़, बकरी व ऊँट चाव से खाते हैं। इस घास को वर्षा ऋतु में काटकर सूखाकर बाद में पशुओं को खिलाने के काम में ले सकते हैं। ग्रामणा घास के चारागाह से प्रति हैक्टेयर 40-70 क्विंटल सूखा चारा प्रति हैक्टेयर लिया जा सकता है। इस घास को पशु कच्ची अवस्था में ज्यादा पसंद करते हैं। परिपक्व अवस्था में इसका तना ज्यादा सख्त हो जाता है, अतः पशु कम पसंद करते हैं। यह घास मृदा क्षरण को रोकने में भी सहायक है क्योंकि इसकी जड़े विकसित व गहराई तक जाती है। फूल आने की अवस्था में इस घास में 8-10 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन पाया जाता है। ग्रामणा घास में अन्य घासों की तुलना में ज्यादा आक्जेलिक अम्ल पाया जाता है जो पशुओं के लिए हानिकारक होता है। लम्बे समय तक ग्रामणा घास खिलाने से पशुओं के शरीर में कैल्शियम की कमी आ जाती है। दलहन चारे में कैल्शियम की अधिकता होती है अतः ग्रामणा घास को दलहन चारे के साथ मिलाकर खिलाना चाहिये। ग्रामणा घास का चारागाह विकसित करने के लिए बरसात का मौसम सर्वोत्तम रहता है तथा इस समय रोपित घास बहुत जल्दी बढ़ती है तथा पैदावार भी अच्छी होती है।
वर्षा ऋतु के अलावा ग्रामणा घास का रोपण फरवरी-मार्च के  महीने में भी कर सकते है। एक हैक्टेयर क्षेत्र में चारागाह स्थापित करने के लिए 6-7 किलोग्राम बीज पर्याप्त है। एक बार स्थापित चारागाह में वैज्ञानिक विधि से चराई कराने पर कई वर्षों तक अच्छी घास पैदा होती है।

ग्रामणा घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत)-                                                                 

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन12-15
ईथर निष्कर्ष2-3
कच्चा रेशा 30-35
नत्रजन रहित निष्कर्ष 35-40
भस्म12-13

7. मूरट घास -

वानस्पतिक नाम: पेनिकम टरजीडम

यह घास अफ्रीका की उत्पत्ति की है तथा लगभग सभी उष्ण व उपोष्ण कटिबन्धिय क्षेत्रों में फैली हुई है। भारत में यह घास लगभग सम्पूर्ण भारत में पाई जाती है। परन्तु मुख्यतः उष्ण व उपोष्ण तथा शुष्क क्षेत्रों में मिलती है। यह घास मुख्यतः रेत के टीलों, बलुई रेत के मैदान तथा थार के रेगिस्तान के कृषित क्षेत्रों (गुजरात व राजस्थान) में मुख्य रूप से पाई जाती है। इस घास का मुख्य गुण यह है कि रेत के धोरों के स्थानान्तरण को रोकने में मुख्य भूमिका निभाती है। मूरट घास गुच्छेदार एक वर्षीय अथवा अल्पकालिक बहुवर्षीय घास है जो
75 सेमी. तक लम्बी होती है। इसका तना पतला, सीधा व लम्बा होता है। पत्तियां रेखाकार 3 से 25 सेमी. लम्बी तथा 3 से 15 सेमी. चौड़ी व रसीली होती है, जिसे पशु चाव से खाते हैं।

मूरट घास की उपयोगिता-

यह घास मुख्य रूप से शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में बरसात के मौसम में उगती हैै जिसे पशु चाव से खाते हैं। यह घास मुख्यतः चारा फसल है जिसका चारा बहुत ही स्वादिष्ट व पौष्टिक होता है। जंगली क्षेत्रों तथा सड़क किनारे एवं पथरीली भूमि में भी यह घास मुख्यतः देखी जा सकती है। यह घास भेड़, बकरी व ऊँटों का बहुत ही पंसदीदा चारा है। इस घास को चारागाह में चराने अथवा काटकर सूखाकर भी पशुओं को खिलाने के काम में ले सकते हैं। इस घास को सूखाकर ‘हे‘ बनाकर भी संरक्षित रख सकते हैं जिसे चारे की कमी में पशुओं को खिलाने के काम में ले सकते हैं। यह घास वर्ष भर में 20-30 क्विंटल सूखा चारा आसानी से पैदा करती है। मूरट घास के चारागाह स्थापित करने के लिए बरसात का मौसम सर्वोत्तम रहता है। अतः बरसात के मौसम में मूरट घास के बीज लगाने चाहिए। स्थापित चारागाह में वैज्ञानिक विधि से चराई करवानी चाहिए।

मूरट घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत)-                                                      

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन6-7
ईथर निष्कर्ष0.8-1
कच्चा रेशा 42-45
भस्म7-8

8. गिनी घास-

प्रचलित नाम: ग्रीन पेनिक
वानस्पतिक नाम: पेनिकम मेक्सीमम

यह लम्बी, घनी व गुच्छेदार बहुवर्षीय घास है जो कल्लेदार व घनी होती है। इस घास की उत्पत्ति अफ्रीका में हुई तथा यह लगभग सम्पूर्ण उष्ण कटिबन्धिय क्षेत्रों में पाई जाती है।

गिनी घास की उपयोगिता -

इस घास को पशुओं को चराने के लिए अथवा काटकर पशुओं को खिलाने के काम में ले सकते हैं। यह घास लगभग 50-60 टन हरा चारा प्रति हैक्टेयर तक पैदा करती है। इस घास की कटाई 10-15 सेमी. ऊंचाई से करनी चाहिए ताकि पुनः वृद्धि अच्छी हो सके। ज्वार व बाजरा से इस घास का चारा स्वादिष्ट होता है जिसे सभी पशु चाव से खाते हैं।

गिनी घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत)-                                                                  

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन7-8
ईथर निष्कर्ष1-2
कच्चा रेशा 38-40
नत्रजन रहित निष्कर्ष 37-40
भस्म15-16

9. लांप घास -

वानस्पतिक नाम: ऐरिस्टीडा डिप्रेसा

यह घास संसार के उष्ण कटिबन्धिय व शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली एकवर्षीय घास है। भारत में यह घास गुजरात व राजस्थान में मुख्य रूप से पाई जाती है। यह घास मुख्य रूप से कम वर्षा वाले शुष्क क्षेत्रों में पाई जाती है। शुष्क भूमि में कम पनपती है। यह घास पर्वतों के ढालों व सड़कों के दोनों तरफ उगी हुई देखी जा सकती है। इस घास से 30-50 सेमी. लम्बी शाखाएं निकलती है।

लांप घास की उपयोगिता-

लांप पश्चिमी राजस्थान में चारे की मुख्य घास है। यह घास भेड़ों व बकरियों का मुख्य आहार है तथा ऊंट भी बड़े चाव से खाते हैं।

लांप घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत)-                                                      

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन5-6
कच्चा रेशा 37-38
नत्रजन रहित निष्कर्ष 45-47
भस्म12-13

10. बरमूडा घास -

प्रचलित नाम: दूब घास/हरियाली
वानस्पतिक नाम: सायनोडोन डेक्टायलोन

दूब घास एक सर्वोत्तम चारा होने के साथ-साथ बहुत ही अच्छा मृदा बन्धक है। यह फैलने वाली बहुवर्षीय घास है जो जड़वृंत अथवा स्टोलोन्स द्वारा प्रवर्द्धन करती है। यद्यपि इस घास में बीज बनते हैं लेकिन यह फैलाव में सहायक नहीं है। इस घास की पत्तियां छोटी व कोमल होती है। राजस्थान में यह घास लगभग सम्पूर्ण राजस्थान में पाई जाती है। दूब घास की उत्पत्ति भारत मानी जाती है। यह घास बर्मा, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दुनिया के लगभग सभी उष्ण कटिबन्धिय देशों में पाई जाती है।

दूब घास  की उपयोगिता-

दूब एक मूल्यवान चारे वाली घास है तथा भारत में मुख्य रूप से पशुओं को चराई जाती है। इस घास को गाय, भैंस, भेड़, बकरियाँ व घोड़े बड़े चाव से खाते हैं। इसका चारा स्वादिष्ट व पौष्टिक तथा कोमल होता है। यह घास वर्ष भर उगती है। लेकिन गर्म व नमी वाली अवस्थाओं में विशेष रूप से सक्रिय रहती है तथा गलीचे के रूप में फैल जाती है। बरसात के मौसम में इकठ्ठी की गई घास को सूखाकर एकत्रित कर संरक्षित कर लेते हैं। जिसे बाद में चारे की कमी में पशुओं को खिलाने के काम में लेते हैं। इसके अलावा यह घास मृदा क्षरण को रोकने के लिए भी सर्वश्रेष्ठ घास है। इस घास से वर्ष भर में 40-50 क्विंटल सूखा चारा प्रति हैक्टेयर आसानी  से प्राप्त होता है।

बरमूडा घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत)-                                                                  

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन8-10
ईथर निष्कर्ष1.5-2
कच्चा रेशा 20-22
नत्रजन रहित निष्कर्ष 55-60
भस्म10-12

11.  नेपियर घास -

प्रचलित नाम: हाथी घास/पूसा जांयट नेपियर घास
वानस्पतिक नाम: पेनिसिटम पुरूरीयम

नेपियर घास अफ्रीकी घास के मैदानों की एक प्रमुख बहुवर्षीय उष्ण कटिबन्धीय घास है। इसका उत्पत्ति स्थल अफ्रीका है। इस घास को सभी उष्ण कटिबन्धीय व उपोष्ण कटिबन्धीय देशों में उगाया जाता है। भारत में यह घास लगभग सम्पूर्ण भारत में पाई जाती है। नेपियर घास के लिए गर्म मौसम तथा दोमट मृदा सर्वोत्तम रहती है। इस घास की बुवाई फरवरी के अंत में की जाती है जो अगस्त तक सर्वाधिक पैदावार देती है। यह घास मक्का व ज्वार के समान ही होती है।

नेपियर घास की उपयोगिता-

इस घास को मुख्यतः काटकर हरे चारे के रूप में पशुओं को खिलाने के काम में लेते हैं। इसके पौष्टिक चारे को पशु चाव से खाते हैं। हरे चारे के अलावा ‘हे‘ अथवा साइलेज के रूप में संरक्षित रख सकते हैं। इस घास का साइलेज बहुत ही स्वादिष्ट बनता है। ‘हे‘ अथवा साइलेज के अलावा चारे की कुट्टी काटकर भी पशुओं को खिलाने के काम में लेते हैं। इस घास से वर्ष भर में 4-6 कटाइयों से 40-50 टन हरा चारा प्रति हैक्टेयर प्राप्त होता है।

नेपियर घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत)-                                                                 

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन9-10
ईथर निष्कर्ष2-3
कच्चा रेशा 30-32
नत्रजन रहित निष्कर्ष 42-45
भस्म15-17

12. दीनानाथ घास -

दीनानाथ घास का उत्पत्ति स्थल अफ्रीका है। भारत में यह घास बिहार, पश्चिमी बंगाल, हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश तथा उत्तरप्रदेश में मुख्य रूप से पाई जाती है। दीनानाथ घास कई शाखाओं वाली व पत्तीदार होती है। इसकी ऊंचाई एक मीटर तक होती है। यह एकवर्षीय घास है तथा इसकी पत्तियां 45 से  60 सेमी. लम्बी व हल्के से गहरे हरे रंग की होती है।

दीनानाथ घास की उपयोगिता -

दीनानाथ घास एक बहुत ही उपयोगी चारा फसल है जो लगभग सभी प्रकार के पशुओं द्वारा पसंद की जाती है। यह घास हरी अवस्था में काटकर अथवा सुखाकर अथवा ‘हे‘ बनाकर पशुओं को खिलाने के काम में ली जाती है। इस घास से 100 टन हरा चारा प्रति हैक्टेयर प्राप्त होता है। इसलिए यह घास रेत के टीलों के स्थिरीकरण का काम भी करती है।

दीनानाथ घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत)-                             

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन7-8
कुल सुपाच्य पोषक तत्व55-60

13. मकरा घास-

वानस्पतिक नाम: इलूसिन इजिप्टीका

यह एक वर्षीय घास है जो पहाड़ी व बेकार भूमि में आसानी से उगती है। इसका प्रबंधन बीज द्वारा होता है। इस घास की शाखाएं ऊपर की ओर उठी हुई होती हैं जो 30 सेमी. तक लम्बी होती है। इस घास का उत्पत्ति स्थल अफ्रीका है, परन्तु यह घास दुनिया के उष्ण व उपोष्ण कटिबन्धिय लगभग सभी देशों में पाई जाती है। राजस्थान के सभी ग्रामीण क्षेत्रों में यह घास आसानी से देखी जा सकती है।

मकरा घास की उपयोगिता-

यह एक उत्तम पशु चारा है जिसे सूखाकर ‘हे‘ के रूप में खिलाया जाता है। यह घास अकाल के समय में भेड़ व बकरी आदि पशुओं के लिए मुख्य आहार है।

मकरा घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत)-                                                     

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन6-7
ईथर निष्कर्ष0.8-1
कच्चा रेशा 40-42
भस्म6-7

14. भोबरा घास -

प्रचलित नाम: भारतीय गूज घास/तातिया घास
वानस्पतिक नाम: इल्यूसिन इण्डिका

भोबरा घास ग्रीष्म ऋतु की एकवर्षीय घास है जो वर्षा ऋतु में उगती है। यह घास संसार के लगभग सभी गर्म प्रदेशों में पाई जाती है। यह मुख्यतः खरपतवार के रूप में घास के मैदानों अथवा फसलों के साथ पाई जाती है।

भोबरा की उपयोगिता -

भोबरा बहुत ही महत्वपूर्ण घास है जिसके चारे के अलावा अकाल की परिस्थितियों में बीजों को खाने के रूप में भी उपयोग में लिया जाता है। इसको कोमल अवस्था में पशु बड़े चाव से खाते है। यह भेड़ों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण व पसंदीदा पौष्टिक चारा है। इसका बहुत ही स्वादिष्ट ‘हे‘ बनता है। इस घास में बीज पैदा करने की जबरदस्त क्षमता होती है।

भोबरा घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत)-                                                    

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन3-4
ईथर निष्कर्ष1-1.5
कच्चा रेशा 35-37
भस्म9-10

15. गंठिल घास -

प्रचलित नाम: गंथिल घास
वानस्पतिक नाम: इल्यूसिन फ्लेजिलिफेरा

यह छोटी और रेंगकर बढ़ने वाली बहुवर्षीय घास है जो मुख्यतः बलुई भूमि में पनपती है। यह घास मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान में बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, सीकर, चुरू, झुन्झुनु व जोधपुर में पाई जाती है। राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों की यह प्रमुख घास है। गंठिल घास को ऊंट बहुत अधिक पंसद करते हैं।

गंठिल की उपयोगिता-

गंठिल घास रेगिस्तानी क्षेत्रों में जहां दूसरी घासें नहीं उगती है वहां यह आसानी से उगती है तथा ऊंटों व भेड़ों का मुख्य चारा है।

गंठिल घास का रासायनिक संघटन (प्रतिशत)-                                                      

घटक का नामप्रतिशत
कच्ची प्रोटीन4-5
ईथर निष्कर्ष1-1.5
कच्चा रेशा 36-40
भस्म8-9
Source-

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