राजस्थान की
रियासतों में प्रजामण्डलों
के
नेतृत्व में उत्तरदायी
शासन की स्थापना
के
लिए नेताओं को
कठोर संघर्ष करना
पड़ा। यातनाएँ झेलनी
पड़ी। कारावास में
रहना पड़ा। उनके
परिवारों को भारी
संकट का सामना
करना पड़ा। यहाँ
तक
कि
अपने जीवन को
भी
दाव पर लगाना
पड़ा। प्रजामण्डलों के
मार्गदर्शन में ही
राजस्थान की विभिन्न
रियासतों में राष्ट्रीय
आन्दोलन की हलचल
हुई। दुर्भाग्य की
बात यह रही
कि
राजस्थान की जनता
को
तीन शक्तियों यथा-राजा,
ठिकानेदार और ब्रिटिश
सरकार का सामना
करना पड़ा। ये
तीनों शक्तियाँ मिलकर
जनता के संघर्ष
का
दमन करती रहीं।
परन्तु राजस्थान की
रियासतों में होने
वाले आन्दोलनों ने
यह
प्रमाणित कर दिया
कि
इन
राज्यों की जनता
भी
ब्रिटिश भारत की
जनता के साथ
कन्धा मिलाकर भारत
को
स्वतन्त्र कराना चाहती
है। जयपुर में प्रजामण्डल
का
नेतृत्व जमनालाल बजाज,
हीरालाल शास्त्री जैसे
दिग्गज नेताओं ने
किया जबकि जोधपुर
में जयनारायण व्यास
के
मार्गदर्शन में उत्तरदायी
शासन की स्थापना
के
लिए संघर्ष चला,
वहीं सिरोही में
गोकुल भाई भट्ट के
शीर्ष नेतृत्व में।
राजस्थान में राजनीतिक
कार्यकर्ताओं की पहली
पीढ़ी में चार
प्रमुख नेताओं का
नाम उल्लेखनीय है,
यथा- अर्जुनलाल सेठी (1880.1941), केसरीसिंह
बारहठ (1872-1941), स्वामी
गोपालदास (1882-1939) एवं
राव गोपालसिंह (1872-1956)।
अर्जुनलाल सेठी
ने
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से
स्नातक की डिग्री
प्राप्त की थी
और
अपना कार्य चौमू
के
ठाकुर देवीसिंह के
निजी सचिव के
रूप में प्रारम्भ
किया लेकिन शीघ्र
ही
अपना यह पद
त्याग दिया। कुछ
समय तक मथुरा
के
एक
जैन स्कूल में
अध्यापक रहे और
फिर 1906 में जयपुर
आ
गए। इसके पश्चात् वे
युवकों को भावी
क्रान्ति के लिए
तैयार करने में
लग
गए।
केसरी सिंह
बारहठ मेवाड़ में
शाहपुरा में पैदा
हुए। वे चारण
तथा राजपूतों में
कुछ सुधार लाना
चाहते थे। उन्होनें
राजपूतों में शिक्षा
प्रसार पर बल
दिया और सामाजिक
कुरीतियों से बचने
की
सलाह दी।
स्वामी गोपालदास
का
जन्म चूरू के
समीप हुआ था।
उनका जीवन इस
बात का ज्वलन्त
उदाहरण है कि
निरंकुश शासन में
सार्वजनिक हित में
कार्य करने वाले
को
कितनी कठिनाइयों का
सामना करना पड़ता
है।
बीकानेर के
प्रबुद्ध शासक गंगासिंह ने
स्वामी गोपालदास को
परेशान करने में
कोई कमी नहीं
की, जबकि उनका
दोष यह था
कि
वे
बीकानेर की वास्तविक
स्थिति से लोगों
को
अवगत करा रहे
थे। सच तो
यह
है
कि
उन्होंने कई रचनात्मक
कार्य किये, जैसे
चूरू में लड़कियों
के
लिए स्कूल खोला,
तालाबों की मरम्मत
कराई और कुएं
खुदवाए।
खरवा का
ठाकुर राव गोपालसिंह
ने
सामंत परिवार में
जन्म लेकर भी
देश के भविष्य
के
लिए अपनी वंश
परम्परागत जागीर को
देश की आजादी
के
लिए दांव पर
लगा दिया। उनके
बारे में ठाकुर
केसरीसिंह ने लिखा
था, “जिस प्रकार पंजाब
को
लाला लाजपतराय पर
और
महाराष्ट्र को बाल
गंगाधर तिलक पर
गर्व है, उसी
प्रकार राजस्थान को राव
गोपालसिंह खरवा पर
गर्व है।“
उक्त नेताओं
की
कार्य प्रणाली के
आधार पर कहा
जा
सकता है कि
इन
नेताओं की योजनाएँ
तथा गतिविधियाँ सामाजिक
कार्य करने, शिक्षा
को
प्रोत्साहित करने तथा
देशप्रेम की भावना
फैलाने की थी।
यह
उल्लेखनीय है कि
उस
समय अप्रगतिशील रूढ़िवादी
घटनाओं पर टीका-टिप्पणी
आपराधिक श्रेणी में
गिनी जाती थी।
समाचार पत्रों का
बाहर से मंगवाना,
एक
टाइप मशीन अथवा
चक्रमुद्रण यन्त्र का
किसी व्यक्ति के
पास होना एक
अपराध माना जाता
था। प्रचलित व्यवस्था
के
प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण
रखना संदिग्ध माना
जाता था। पुरानी
मान्यताओं को तर्क
की
कसौटी पर जाँचनें
तथा राजनीतिक एवं
प्रषासनिक नीतियों के
प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण
रखने को क्रांतिकारी
समझा जाता था।
रास बिहारी घोष,
महर्षि अरविन्द, शचीन्द्र
सान्याल से मिल
लेना ही क्रांतिकारी
माने जाने के
लिए पर्याप्त समझा
जाता था। यह
महत्वपूर्ण नहीं है
कि
जो
कार्य सेठी, बारहट,
खरवा राव, स्वामी
गोपालदास आदि ने
किया, उसमें से
उन्हें सफलता मिली
या
असफलता तथा वे
संस्थागत रूप धारण
कर
सके अथवा धराशायी
हो
गए, अपितु महत्वपूर्ण
यह
है
कि
वे
लोगों को कितना
प्रभावित कर पाये।
इस
मायने में वे
सफल रहे। इन
नेताओं ने अपने
बलिदान से पुराने
सामन्ती ढांचे के
अन्यायपूर्ण आचरण का
पर्दाफाश किया।
कोटा में प्रजामण्डल-
कोटा राज्य
में जन-जागृति
के
जनक पं. नयनूराम
शर्मा थे। उन्हानें
थानेदार के पद
से
इस्तीफा देकर सार्वजनिक
जीवन में प्रवेश
किया था। वे
विजयसिंह पथिक द्वारा
स्थापित राजस्थान सेवा
संघ के सक्रिय
सदस्य बन गए। उन्होंने
कोटा राज्य में
बेगार विरोधी आन्दोलन
चलाया, जिसके फलस्वरूप बेगार
प्रथा की प्रताड़ना
में कमी आई। 1939
में पं. नयनूराम
शर्मा और पं.
अभिन्न हरि ने
कोटा राज्य में
उत्तरदायी शासन स्थापित
करने के उद्देश्य
को लेकर कोटा राज्य
प्रजामण्डल की स्थापना
की। प्रजामण्डल का
पहला अधिवेशन पं. नयनूराम
शर्मा
की
अध्यक्षता में मांगरोल
(बाराँ) में सम्पन्न
हुआ।
अजमेर में प्रजामण्डल-
अजमेर में
जमनालाल बजाज की
अध्यक्षता में ”राजपूताना मध्य
भारत सभा’
का
आयोजन (1920) किया गया, जिसमें
अर्जुन लाल सेठी, केसरीसिंह बारहठ, राव गोपालसिंह खरवा,
विजयसिंह पथिक आदि
ने
भाग लिया। इसी
वर्ष देश में
खिलाफत आन्दोलन चला।
अजमेर में खिलाफत
समिति की बैठक हुई, जिसमें डॅा. अन्सारी, शेख अब्बास अली, चांदकरण शारदा आदि
ने भाग लिया। अक्टूबर, 1920 में ‘राजस्थान सेवा संघ’ को वर्धा से लाकर अजमेर में स्थापित किया गया, उसका उद्देश्य
राजस्थान की रियासतों
में चलने वाले
आन्दोलनों को गति
देना था। उसी
समय रामनारायण चौधरी
वर्धा से लौटकर अपना कार्य क्षेत्र अजमेर बना चुके थे।
अजमेर में 15 मार्च, 1921 को द्वितीय राजनीतिक कांफ्रेस
का
आयोजन हुआ, जिसमें मोतीलाल नेहरू
उपस्थित थे। मौलाना
शौकत अली ने
सभा की अध्यक्षता
की
थी। सभा में
विदेशी वस्त्रों के
बहिष्कार का आह्वान
किया गया। पंडित
गौरीशंकर भार्गव ने
अजमेर में विदेशी
वस्त्रों के बहिष्कार
की
अगुवाई कर प्रथम
गांधीवादी बनने का
सौभाग्य प्राप्त किया। जब ‘प्रिंस आफ वेल्स’ का अजमेर आगमन (28 नवम्बर, 1921) हुआ, तो उसका स्वागत के स्थान
पर बहिष्कार किया गया, हड़ताल की
गई
तथा दुकाने बन्द
की
गई। प्रिंस की
यात्रा की व्यापक
प्रतिक्रिया हुई।
जैसलमेर का सागरमल गोपा-
जैसलमेर
रेगिस्तान के धोरों
के
मध्य एक पिछडी़
हुई छोटी रियासत
थी। यहाँ के
सागरमल गोपा ने
जैसलमेर की जनता
को
महारावल जवाहर सिंह
के
निरंकुश और दमनकारी
शासन के विरुद्ध
जागृत किया। सागरमल
गोपा ने 1940 में ’जैसलमेर में गुण्डाराज’ नामक पुस्तक छपाकर वितरित करवा दी। अतः महारावल ने शीघ्र ही
उसे राज्य से
निर्वासित कर दिया।
गोपा नागपुर चला
गया और वहाँ से जैसलमेर के दमनकारी
शासन के विरुद्ध प्रचार करता रहा। मार्च, 1941 में उसके पिता
का
देहान्त हो गया, तब
ब्रिटिश रेजीडेण्ट की
स्वीकृति के पश्चात्
ही
वह
जैसलमेर पहुँच सका।
रेजीडेण्ट ने आश्वासन
दिया था कि
उसके विरुद्ध राज्य
सरकार का कोई
आरोप नहीं है, अतः वह जैसलमेर
आ
सकता है तथा
उसे किसी प्रकार
के
दुव्र्यवहार का भय
नहीं होना चाहिए।
इस
प्रकार गोपा जैसलमेर
पहुँचा। जैसलमेर जाकर
वह
लगभग दो माह पश्चात् लौट रहा था, जब उसे अचानक बन्दी
(22 मई, 1941) बना लिया गया। बन्दी अवस्था में उसे गम्भीर एवं अमानवीय यातनाएँ दी गई। अन्ततः
उसे राजद्रोह के
अपराध में 6 वर्ष की कठोर कारावास
की
सजा दी गई।
जेल में थानेदार
गुमानसिंह यातनाएँ देता
रहा, जिससे उसका जीवन नारकीय हो गया था। गोपा द्वारा
जयनारायण व्यास आदि को यातनाओं के सम्बन्ध में पत्र लिखे गए। जयनारायण व्यास
ने
रेजीडेण्ट को पत्र
लिखकर वास्तविक स्थिति
का
पता लगाने का
आग्रह किया। रेजीडेण्ट
ने
6 अप्रैल, 1946 को जैसलमेर जाने का कार्यक्रम बनाया,
उधर 3 अप्रैल, 1946 को ही जेल में गोपा पर मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया। यह खबर
जंगल में आग की तरह फैल गयी किन्तु शासन ने गोपा के रिश्तेदारों
तक
को नहीं मिलने दिया। लगभग 20 घण्टे तड़पने के बाद 4 अप्रैल
को वे चल बसे। पूरा नगर ’सागरमल गोपा जिन्दाबाद’ के नारों से
गूंज उठा। पण्डित नेहरू तथा जयनारायण व्यास सहित अनेक शीर्ष नेताओं ने इस काण्ड की
निंदा की। राजस्थान जब कभी भी स्वतन्त्रता सेनानियों को याद करेगा, गोपा
का
नाम प्रथम पंक्ति
में अमर रहेगा।
भरतपुर में
जनजागृति-
भरतपुर में
जनजागृति पैदा करने
वालों में जगन्नाथदास
अधिकारी और गंगाप्रसाद
शास्त्री प्रमुख थे।
इन्होंने 1912 में ’हिन्दी साहित्य समिति’ की स्थापना की, जिसने शीघ्र ही लोकप्रियता प्राप्त कर एक
विशाल पुस्तकालय का रूप
धारण कर लिया।
भरतपुर के तत्कालीन
महाराजा किशनसिंह अन्य
शासकों की तुलना
में जागरूक थे।
उन्होंने हिन्दी को
राजभाषा का दर्जा
दिया। गाँवों और
नगरों में स्वायत्तशासी
संस्थाओं को विकसित
किया और राज्य
में एक अखिल
भारतीय हिन्दी साहित्य
सम्मेलन का अधिवेशन
किया। वह राज्य
में उत्तरदायी शासन
की
स्थापना के पक्ष
में था। परन्तु
अंग्रेज सरकार ने
उसके प्रगतिशील विचारों
के
दूरगामी परिणामों को
सोचकर उसे गद्दी
छोड़ने के लिए
विवश किया। नये
शासक ने सभाओं
एवं प्रकाशनों पर
प्रतिबन्ध लगा दिया।
इतना ही नहीं
राष्ट्रीय नेताओं के
चित्र रखना अपराध
मान लिया गया।
फिर भी, भरतपुर में
जन-जागरण
का
कार्य चोरी-छिपे चलता
रहा। गोपीलाल यादव, मास्टर आदित्येन्द्र,
जुगलकिषोर चतुर्वेदी आदि के नेतृत्व में भरतपुर राज्य
प्रजामण्डल अपनी गतिविधियाँ
चलाता रहा।
जोधपुर में प्रजामण्डल-
जोधपुर के
प्रजामण्डल के इतिहास
में बालमुकुन्द बिस्सा
का
नाम स्मरणीय रहेगा।
मारवाड़ के एक
छोटे से ग्राम पीलवा, तहसील डीडवाना में जन्मे बालमुकुन्द
बिस्सा ने 1934 में जोधपुर में गांधी जी से प्रेरित होकर खादी भण्डार खोला और तब से
राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भाग लेने लगा। उसका जवाहर खादी भण्डार शीघ्र ही राजनीतिक
गतिविधियों का केन्द्र बन गया। 1942 में जोधपुर में उत्तरदायी शासन के लिए जो आन्दोलन
चला, उसमें उसे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जहाँ भूख हड़ताल एवं यातनाओं के कारण
वह शहीद हो गया परन्तु उससे प्रेरित होकर कई युवा प्रजामण्डल आन्दोलन में कूद पड़े।
मेवाड़ में
प्रजामण्डल-
मेवाड़ में
प्रजामण्डल की स्थापना
बिजौलिया आन्दोलन के
कर्मठ नेता माणिक्यलाल
वर्मा द्वारा मार्च, 1938 में की गई। इस हेतु वे साइकिल
पर
सवार होकर निकल
पड़े। वे जब
शाहपुरा होकर गुजरे
तो
वहाँ उन्हें रमेश
चन्द्र ओझा और लादूराम
व्यास जैसे उत्साही
व्यक्ति मिल गए।
वर्मा की प्रेरणा
से
इन नवयुवकों ने 1938 में शाहपुरा राज्य में प्रजामण्डल
की स्थापना की। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि शाहपुरा राज्य ने प्रजामण्डल की गतिविधियों
में अनावष्यक दखल नहीं दिया।
डूँगरपुर में
1935 में भोगीलाल पण्ड़या ने हरिजन सेवा समिति की स्थापना की। उसी वर्ष शोभालाल गुप्त
ने राजस्थान सेवक मण्डल की ओर से हरिजनों और भीलों के हितार्थ सागवाड़ा में एक आश्रम
स्थापित किया। इसी बीच बिजौलिया आन्दोलन के प्रमुख सूत्रधार माणिक्यलाल वर्मा जन-जातियों
में काम करने के उद्देश्य से डूँगरपुर आये। उन्होंने ‘बागड़ सेवा मन्दिर’ की स्थापना द्वारा भीलों में साक्षरता का प्रचार किया तथा सामाजिक
कुरीतियों के
निवारणार्थ उल्लेखनीय
कार्य किया। इससे भीलों में नवजीवन का संचार हुआ। परन्तु राज्य सरकार ने शीघ्र ही वागड़
सेवा मन्दिर की रचनात्मक प्रवृत्तियों को नियन्त्रित कर दिया। 1944 में डूँगरपुर प्रजामण्डल
की स्थापना हरिदेव जोशी, भोगीलाल पण्ड्या, गौरीशंकर आचार्य आदि ने मिलकर
की। डूँगरपुर के
भोगीलाल पण्ड्या पर
जेल में किये
जाने वाले अमानुषिक
व्यवहार का गोकुल भाई भट्ट, माणिक्यलाल वर्मा, हीरालाल शास्त्री, रमेशचन्द्र
व्यास आदि
ने
मिलकर जमकर विरोध
किया। फलस्वरूप डूँगरपुर
महारावल को पण्ड्या
सहित अनेक कार्यकर्ताओं
को
छोड़ना पड़ा।
भारत छोड़ो आन्दोलन और राजस्थान-
भारत छोड़ो
आन्दोलन (प्रस्ताव 8 अगस्त, शुरुआत 9 अगस्त, 1942) के
‘करो या मरो’ की घोषणा के
साथ ही राजस्थान में
भी
गांधीजी की गिरफ्तारी
का
विरोध होने लगा। जगह-जगह जुलूस, सभाओं और
हड़तालों का आयोजन
होने लगा। विद्यार्थी
अपनी शिक्षण संस्थानों
से
बाहर आ गए
और आन्दोलन में कूद पड़े। स्थान-स्थान पर रेल की पटरियाँ
उखाड़ दी, तार और टेलीफोन के तार काट दिये। स्थानीय जनता ने समानान्तर सरकारें स्थापित
कर लीं। उधर जवाब में ब्रिटिश सरकार ने भारी दमनचक्र चलाया। जगह-जगह पुलिस ने गोलियाँ
चलाई। कई मारे गए, हजारों
गिरफ्तार किये गए।
देश की आजादी
की
इस
बड़ी लड़ाई में
राजस्थान ने भी
कंधे से कंधा
मिलाकर योगदान दिया।
जोधपुर राज्य में
सत्याग्रह का दौर चल पड़ा। जेल जाने वालांे
में मथुरादास माथुर, दवे नारायण व्यास, गणेशीलाल व्यास, सुमनेष जोशी, अचलेश्वर प्रसाद
शर्मा, छगनराज चौपासनीवाला, स्वामी कृष्णानंद, द्वारका प्रसाद पुरोहित आदि थे। जोधपुर
में विद्यार्थियों ने बम बनाकर सरकारी सम्पत्ति को नष्ट किया। किन्तु राज्य सरकार के
दमन के कारण आन्दोलन कुछ समय के लिए शिथिल पड़ गया। अनेक लोगों ने जयनारायण व्यास पर
आन्दोलन समाप्त करने का दवाब डाला, परन्तु वे अडिग रहे। राजस्थान में 1942 के आन्दोलन
में जोधपुर राज्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस आन्दोलन में लगभग 400 व्यक्ति जेल
में गए। महिलाओं में श्रीमती गोरजा देवी जोशी, श्रीमती सावित्री देवी भाटी, श्रीमती
सिरेकंवल व्यास, श्रीमती राजकौर व्यास आदि ने अपनी गिरफ्तारियाँ दी।
माणिक्यलाल वर्मा
रियासती नेताओं की बैठक में भाग लेकर इंदौर आये तो उनसे पूछा गया कि भारत छोड़ो आन्दोलन
के संदर्भ में मेवाड़ की क्या भूमिका रहेगी, तो उन्होंने उत्तर दिया, ”भाई हम तो मेवाड़ी
हैं, हर बार हर-हर महादेव बोलते आये हैं, इस बार भी बोलेंगे।“ स्पष्ट
था
कि
भारत छोड़ो आन्दोलन
के
प्रति उनका सकारात्मक
रूख था। बम्बई
से
लौटकर उन्होंने मेवाड़
के
महाराणा को ब्रिटिश
सरकार से सम्बन्ध
विच्छेद करने का
20 अगस्त, 1942 को अल्टीमेटम दिया।
परन्तु महाराणा ने
इसे महत्त्व नहीं
दिया। दूसरे दिन
माणिक्यलाल गिरफ्तार कर
लिये गए। उदयपुर
में काम-काज ठप्प हो गया। इसके
साथ ही प्रजामण्डल के कार्यकर्ता और सहयोगियों की गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ।
उदयपुर के भूरेलाल बया, बलवन्त सिंह मेहता, मोहनलाल सुखाड़िया, मोतीलाल तेजावत, शिवचरण
माथुर, हीरालाल कोठारी, प्यारचंद विश्नोई, रोशनलाल बोर्दिया आदि गिरफ्तार हुए। उदयपुर
में महिलाएँ भी पीछे नहीं रहीं। माणिक्यलाल वर्मा की पत्नी नारायणदेवी वर्मा अपने
6 माह के पुत्र को गोद में लिये जेल में गयी। प्यारचंद विश्नोई की धर्मपत्नी भगवती
देवी भी जेल गयी। आन्दोलन के दौरान उदयपुर में महाराणा कालेज और अन्य शिक्षण संस्थाएँ
कई दिनों तक बन्द रहीं। लगभग 600 छात्र गिरफ्तार किये गए।
मेवाड़ के संघर्ष
का दूसरा महत्वपूर्ण केन्द्र नाथद्वारा था। नाथद्वारा में हड़तालों और जुलूसों की धूम
मच गयी। नाथद्वारा के अतिरिक्त भीलवाड़ा, चित्तौड़ भी संघर्ष के केन्द्र थे। भीलवाड़ा
के रमेशचन्द्र व्यास, जो मेवाड़ प्रजामण्डल के प्रथम सत्याग्रही थे, को आन्दोलन प्रारम्भ
होते ही गिरफ्तार कर लिया। मेवाड़ में आन्दोलन को रोका नहीं जा सका, इसका प्रशासन को
खेद रहा।
जयपुर राज्य
की 1942 के भारत छोड़ों आन्दोलन में भूमिका विवादास्पद रही। जयपुर प्रजामण्डल का एक
वर्ग भारत छोड़ों आन्दोलन से अलग नहीं रहना चाहता था। इनमें बाबा हरिश्चन्द, रामकरण
जोशी, दौलतमल भण्डारी आदि थे। ये लोग पं0 हीरालाल शास्त्री से मिले। हीरालाल शास्त्री
ने 17 अगस्त, 1942 की शाम को जयपुर में आयोजित सार्वजनिक सभा
में आन्दोलन की
घोषणा का आश्वासन
दिया। यद्यपि पूर्व
निर्धारित कार्यक्रम के
अनुसार सभा हुई,
परन्तु हीरालाल शास्त्री
ने
आन्दोलन की घोषणा
करने के स्थान
पर
सरकार के साथ
हुई समझौता वार्ता
पर
प्रकाश डाला। हीरालाल शास्त्री
ने
ऐसा सम्भवतः इसलिए
किया कि उनके
जयपुर के तत्कालीन
प्रधानमंत्री मिर्जा इस्माइल
से
मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे
तथा जयपुर महाराजा
के
रवैये एवं आश्वासन
से
जयपुर प्रजामण्डल सन्तुष्ट
था। जयपुर राज्य के
भीतर और बाहर
हीरालाल शास्त्री की
आलोचना की गई।
बाबा हरिश्चन्द और
उनके सहयोगियों ने
एक
नया संगठन ’आजाद मोर्चा’ की
स्थापना कर आन्दोलन
चलाया। इस मोर्चे
का
कार्यालय गुलाबचन्द कासलीवाल
के
घर
स्थित था। जयपुर
के
छात्रों ने शिक्षण
संस्थाओं में हड़ताल
करवा दी।
कोटा राज्य प्रजामण्डल
के नेता पं. अभिन्नहरि को बम्बई से लौटते ही 13 अगस्त को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रजामण्डल
के अध्यक्ष मोतीलाल जैन ने महाराजा को 17 अगस्त को अल्टीमेटम दिया कि वे शीघ्र ही अंग्रेजों
से सम्बन्ध विच्छेद कर दें। फलस्वरूप सरकार ने प्रजामण्डल के कई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार
कर लिया। इनमें शम्भूदयाल सक्सेना, बेणीमाधव शर्मा, मोतीलाल जैन, हीरालाल जैन आदि थे।
उक्त कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के बाद नाथूलाल जैन ने आन्दोलन की बागड़ोर सम्भाली।
इस आन्दोलन में कोटा के विद्यार्थियों का उत्साह देखते ही बनता था। विद्यार्थियों ने
पुलिस को बेरकों में बन्द कर रामपुरा शहर कोतवाली पर अधिकार (14-16 अगस्त,1942) कर
उस पर तिरंगा फहरा दिया। जनता ने नगर का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। लगभग 2 सप्ताह
बाद जनता ने महाराव के इस आश्वासन पर कि सरकार दमन सहारा नहीं लेगी, शासन पुनः महाराव
को सौंप दिया। गिरफ्तार कार्यकर्ता रिहा कर दिये गए।
भरतपुर में भी भारत छोड़ों आन्दोलन
की चिंगारी फैल गई। भरतपुर राज्य प्रजा परिषद्
के कार्यकर्ता मास्टर आदित्येन्द्र, युगलकिशोर चतुर्वेदी, जगपतिसिंह, रेवतीशरण, हुक्मचन्द,
गौरीशंकर मित्तल, रमेश शर्मा आदि नेता गिरफ्तार कर लिये गए। इसी समय दो युवकों ने डाकखानों
और रेलवे स्टेशनों को तोड़-फोड़ की योजना बनाई, परन्तु वे पकड़े गए। आन्दोलन की प्रगति
के दौरान ही राज्य में बाढ़ आ गयी। अतः प्रजा परिषद् ने इस प्राकृतिक विपदा को ध्यान
में रखते हुए अपना आन्दोलन स्थगित कर राहत कार्यों में लगने का निर्णय लिया। शीघ्र
ही सरकार से आन्दोलनकारियों की समझौता वार्ता प्रारम्भ हुई। वार्ता के आधार पर राजनीतिक
कैदियों को रिहा कर दिया गया। सरकार ने निर्वाचित सदस्यों के बहुमत वाली विधानसभा बनाना
स्वीकार कर लिया।
शाहपुरा राज्य
प्रजामण्डल ने भारत
छोड़ो आन्दोलन शुरू
होने के साथ
ही
राज्य को अल्टीमेटम
दिया कि वे
अंग्रेजों से सम्बन्ध
विच्छेद कर दें।
फलस्वरूप प्रजामण्डल के
कार्यकर्ता रमेश चन्द्र ओझा, लादूराम व्यास,
लक्ष्मीनारायण कौटिया गिरफ्तार कर लिये गए। शाहपुरा के गोकुल लाल असावा पहले ही अजमेर
में गिरफ्तार कर लिये गए थे।
अजमेर में कांग्रेस के आह्वान के फलस्वरूप भारत छोड़ो
आन्दोलन का प्रभाव
पड़ा। कई व्यक्तियों
को
गिरफ्तार कर लिया।
इनमें बालकृष्ण कौल, हरिभाऊ उपाध्याय, रामनारायण चैधरी,
मुकुट बिहारी भार्गव, अम्बालाल माथुर, मौलाना अब्दुल
गफूर, शोभालाल गुप्त आदि थे। प्रकाशचन्द ने इस आन्दोलन के संदर्भ में अनेक गीतों को
रचकर प्रजा को नैतिक बल दिया। जेलों के कुप्रबन्ध के विरोध में बालकृष्ण कौल ने भूख
हड़ताल कर दी।
बीकानेर में
भारत छोड़ो आन्दोलन का विशेष प्रभाव देखने को नहीं मिलता है। बीकानेर राज्य प्रजा परिषद्
के नेता रघुवरदयाल गोयल को पहले से ही राज्य से निर्वासित कर रखा था। बाद में गोयल
के साथी गंगादास कौशिक और दाऊदयाल आचार्य को गिरफ्तार कर लिया गया। इन्हीं दिनों नेमीचन्द
आँचलिया ने अजमेर से प्रकाशित एक साप्ताहिक में लेख लिखा, जिसमें बीकानेर राज्य में
चल रहे दमन कार्यों की निंदा की गई। राज्य सरकार ने आँचलिया को 7 वर्ष का कठोर कारावास
का दण्ड दिया। राज्य में तिरंगा झण्डा फहराना अपराध माना जाता था। अतः राज्य में कार्यकर्ताओं
ने झण्डा सत्याग्रह शुरू कर भारत छोड़ों आन्दोलन में अपना योगदान दिया।
अलवर, डूँगरपुर, प्रतापगढ़, सिरोही, झालावाड़ आदि राज्यों में भी भारत
छोड़ो आन्दोलन की आग फैली। सार्वजनिक सभाएँ कर देश में अंग्रेजी शासन का विरोध किया
गया। कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारियाँ हुई। हड़तालें हुई। जुलुस निकाले गए। (संदर्भ-
माध्यमिक शिक्षा बोर्ड,
राजस्थान की राजस्थान
अध्ययन की पुस्तक)
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