अरावली की पहाड़ियों में 1220 मीटर की ऊँचाई के सुंधा पहाड़ पर चामुंडा माता जी का एक प्रसिद्ध मंदिर स्थित है जिसे सुंधामाता के नाम से जाना जाता है। सुंधा पर्वत की रमणीक एवं सुरम्य घाटी में सागी नदी से लगभग 40-45 फीट ऊंची एक प्राचीन सुरंग से जुड़ी गुफा में अघटेश्वरी चामुंडा का यह पुनीत धाम युगों-युगों से सुशोभित माना जाता है। यह जिला मुख्यालय जालोर से 105 Km तथा भीनमाल कस्बे से 35 Km दूरी पर दाँतलावास गाँव के निकट स्थित है। यह स्थान रानीवाड़ा तहसील में मालवाड़ा और जसवंतपुरा के बीच में है। यहाँ गुजरात, राजस्थान और अन्य राज्यों से प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु पर्यटक माता के दर्शन हेतु आते हैं। यहाँ का वातावरण अत्यंत ही मोहक और आकर्षक है जिसे वर्ष भर चलते रहने वाले फव्वारे और भी सुंदर बनाते हैं।
माता के मंदिर में संगमरमर स्तंभों पर की गई कारीगरी आबू के दिलवाड़ा जैन मंदिरों के स्तंभों की याद दिलाती है। यहाँ एक बड़े प्रस्तर खंड पर बनी माता चामुंडा की सुंदर प्रतिमा अत्यंत दर्शनीय है। यहाँ माता के सिर की पूजा की जाती है। यह कहा जाता है कि चामुंडा जी का धड़ कोटड़ा में तथा चरण सुंदरला पाल (जालोर) में पूजित है। सुंधामाता को अघटेश्वरी कहा जाता है जिसका अभिप्राय है- "वह घट (धड़) रहित देवी, जिसका केवल सिर ही पूजा जाता है।"
पौराणिक मान्यता के अनुसार अपने ससुर राजा दक्ष से यहाँ यज्ञ के विध्वंस के बाद शिव ने यज्ञ वेदी में जले हुए अपनी पत्नी सती के शव को कंधे पर उठाकर तांडव नृत्य किया तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के टुकड़े टुकड़े कर छिन्न भिन्न कर दिया। उनके शरीर के अंग भिन्न-भिन्न स्थानों पर जहां जहां गिरे, वहाँ शक्ति पीठ स्थापित हो गए। यह माना जाता है कि सुंधा पर्वत पर सती का सिर गिरा जिससे वे 'अघटेश्वरी' के नाम से विख्यात है।
देवी के इस मंदिर परिसर में माता के सामने एक प्राचीन शिवलिंग भी प्रतिष्ठित है, जो 'भुर्भुवः स्ववेश्वर महादेव' (भूरेश्वर महादेव) के नाम से सेव्य है। इस प्रकार सुंधा पर्वत के अंचल में यहाँ शिव और शक्ति दोनों एक साथ प्रतिष्ठित है।
यहाँ प्राप्त सुंधा शिलालेख हरिशेन शिलालेख या महरौली शिलालेख की तरह ऐतिहासिक महत्व का है। इस शिलालेख के अनुसार जालोर के चौहान नरेश चाचिगदेव ने इस देवी के मंदिर में विक्रम संवत 1319 में मंडप बनवाया था जिससे स्पष्ट होता है कि इस सुगंधगिरी अथवा सौगन्धिक पर्वत पर चाचिगदेव से पहले ही यहाँ चामुंडा जी विराजमान थी तथा चामुंडा 'अघटेश्वरी' नाम से लोक प्रसिद्ध थी। सुंधा माता के विषय में एक जनश्रुति यह भी है कि बकासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए चामुंडा अपनी सात शक्तियों (सप्त मातृकाओं) समेत यहाँ पर अवतरित हुई जिनकी मूर्तियाँ चामुंडा (सुंधा माता) के पार्श्व मे प्रतिष्ठित है। माता के इस स्थान का विशेष पौराणिक महत्व है, यहाँ आना अत्यंत पुण्य फलदायी माना जाता है। कई समुदायों/जातियों द्वारा इस परिसर में भोजन प्रसाद बनाने के लिए हॉल का निर्माण कराया गया है। नवरात्रि के दौरान यहाँ भारी तादाद में श्रद्धालु माता की अर्चना के लिए आते हैं। पर्वत चोटी पर स्थित मंदिर पर जाने में आसानी के लिए वर्तमान में 800 मीटर लंबे मार्ग वाला रोप-वे भी यहाँ संचालित है जिससे लगभग छः मिनट में पर्वत पर पहुँचा जा सकता है।
माता के मंदिर में संगमरमर स्तंभों पर की गई कारीगरी आबू के दिलवाड़ा जैन मंदिरों के स्तंभों की याद दिलाती है। यहाँ एक बड़े प्रस्तर खंड पर बनी माता चामुंडा की सुंदर प्रतिमा अत्यंत दर्शनीय है। यहाँ माता के सिर की पूजा की जाती है। यह कहा जाता है कि चामुंडा जी का धड़ कोटड़ा में तथा चरण सुंदरला पाल (जालोर) में पूजित है। सुंधामाता को अघटेश्वरी कहा जाता है जिसका अभिप्राय है- "वह घट (धड़) रहित देवी, जिसका केवल सिर ही पूजा जाता है।"
पौराणिक मान्यता के अनुसार अपने ससुर राजा दक्ष से यहाँ यज्ञ के विध्वंस के बाद शिव ने यज्ञ वेदी में जले हुए अपनी पत्नी सती के शव को कंधे पर उठाकर तांडव नृत्य किया तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के टुकड़े टुकड़े कर छिन्न भिन्न कर दिया। उनके शरीर के अंग भिन्न-भिन्न स्थानों पर जहां जहां गिरे, वहाँ शक्ति पीठ स्थापित हो गए। यह माना जाता है कि सुंधा पर्वत पर सती का सिर गिरा जिससे वे 'अघटेश्वरी' के नाम से विख्यात है।
देवी के इस मंदिर परिसर में माता के सामने एक प्राचीन शिवलिंग भी प्रतिष्ठित है, जो 'भुर्भुवः स्ववेश्वर महादेव' (भूरेश्वर महादेव) के नाम से सेव्य है। इस प्रकार सुंधा पर्वत के अंचल में यहाँ शिव और शक्ति दोनों एक साथ प्रतिष्ठित है।
यहाँ प्राप्त सुंधा शिलालेख हरिशेन शिलालेख या महरौली शिलालेख की तरह ऐतिहासिक महत्व का है। इस शिलालेख के अनुसार जालोर के चौहान नरेश चाचिगदेव ने इस देवी के मंदिर में विक्रम संवत 1319 में मंडप बनवाया था जिससे स्पष्ट होता है कि इस सुगंधगिरी अथवा सौगन्धिक पर्वत पर चाचिगदेव से पहले ही यहाँ चामुंडा जी विराजमान थी तथा चामुंडा 'अघटेश्वरी' नाम से लोक प्रसिद्ध थी। सुंधा माता के विषय में एक जनश्रुति यह भी है कि बकासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए चामुंडा अपनी सात शक्तियों (सप्त मातृकाओं) समेत यहाँ पर अवतरित हुई जिनकी मूर्तियाँ चामुंडा (सुंधा माता) के पार्श्व मे प्रतिष्ठित है। माता के इस स्थान का विशेष पौराणिक महत्व है, यहाँ आना अत्यंत पुण्य फलदायी माना जाता है। कई समुदायों/जातियों द्वारा इस परिसर में भोजन प्रसाद बनाने के लिए हॉल का निर्माण कराया गया है। नवरात्रि के दौरान यहाँ भारी तादाद में श्रद्धालु माता की अर्चना के लिए आते हैं। पर्वत चोटी पर स्थित मंदिर पर जाने में आसानी के लिए वर्तमान में 800 मीटर लंबे मार्ग वाला रोप-वे भी यहाँ संचालित है जिससे लगभग छः मिनट में पर्वत पर पहुँचा जा सकता है।
अच्छी जानकारी !!
ReplyDeleteधन्यवाद पूरण खंडेलवाल जी
ReplyDeleteGood for competitive exams
ReplyDeleteधन्यवाद श्रीमान जी
ReplyDeletejay mataji ri sa
ReplyDeletedhanyawad purnji....
Parsp Choudhary जी, आपका ह्रदय से कोटिशः आभार.
ReplyDeleteplz give me name of my kul devi & address
ReplyDeletemarothiya mali(saini)
सुंधामाताके सिर, धड और पगके भिन्न भिन्न स्थानों पर पूजाके संबंधमें सतीके अंग गीरनेका/ शक्तीपीठका भ्रम:-
ReplyDelete“लोकमान्यता में सुन्धामाता को अघटेश्वरी भी कहा जाता है । अघटेश्वरी से तात्पर्य वह धड़रहित देवी है, जिसका केवल सर पूजा जाता है । पौराणिक मान्यता के अनुसार राजा दक्ष के यज्ञ के विध्वंश के बाद शिव ने यज्ञ वेदी में जले हुए अपनी पत्नी सती के शव को कंधे पर उठाकर ताण्डव नृत्य किया था तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शव के टुकड़े -टुकड़े कर छिन्न-भिन्न कर दिया । उसके शरीर के अंग भिन्न-भिन्न स्थानों पर जहाँ गिरे , वहाँ शक्तिपीठ स्थापित हो गये । सम्भवतः इस सुन्धा पर्वत पर सती का सर गिरा जिससे वे अघटेश्वरी कहलायी ।“
उपरका अवतरण “VIRAM TV” की वेबसाईट पर “राजस्थानका प्रसिद्ध शक्तिपीठ जलोरकी सुन्धामाता(Sundha Mata) June 13, 2016 आर्टिकलमेंसे लिया है।
“श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्यम्“ नामके ग्रंथमें देवीकी सारी जानकारी है। भगवान विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से सती के शव के टुकड़े -टुकड़े छिन्न-भिन्न करनेका और वो जहां गीरे उसकी पीठोंका वर्णन है। उसके प्रमाणे देवीके शरीरका एक एक अंग अलग हुआ था। मस्तक पुरा कहीं नहीं गिरा था। उसकेभी अलग अलग भाग अलग अलग जगह पर गीरे थे। जैसे कि बाँये कानसे कश्मीर पीठ, दाहीने कानसे कान्यकुब्ज पीठ, बाँये गालसे भवानी पीठ, दाहीने गालसे अम्रातकेश्वर पीठ; सो मस्तक पुरा कहीं नहीं गीरा है। जब मस्तक पुरा कहीं गीराही नहीं है तो सुन्धा पर्वत पर सती का सर गिरनेकी और उसे अघटेश्वरी कहलानेकी बातही नहीं बनती। और सुन्धामाताजीके स्थल पर तो कोई अंग गीरा ही नहीं है।
कदाचित् सुन्धामाताजीके स्थलको प्रसिद्धि देनेके हेतुसे ये लोकमान्यता जोड दी है।
“सिर सुन्धे धर कोरटे, पग सुंदरला पाल । चामुण्डा इसरी, गले फुलोँरी माल।“
लोकमान्यताका अर्थ ये है कि माँका सिर सुंधा पर, धड कोरटे तथा पग सुंदरला पाळ(जालोर)में पूजे जाते हैं। नहीं कि सतीका सिर सुन्धामें, धड कोरटामें और पग सुंदरला पाळ(जालोर)में गीरा था। क्योंकि, तब तो शक्तिकी तीनही पीठ बनती हैं; जबकि शास्त्रोंमें मुख्य ईक्यावन पीठ कही गई है।
जब माताजीके शरीरके तीन भागकी भिन्न भिन्न स्थानों पर स्थापना हैं तो पैर, धड और सिरके स्थानके स्थलोंकी अनुक्रमसे पूजा या दर्शन(यात्रा) करनेसेही पूरी पूजा या दर्शन(यात्रा) संपन्न हो सकती हैं; अन्यथा अपूर्ण रहती हैं। सो ईस क्रमसे संपूर्ण पूजा या दर्शन(यात्रा) करनी चाहीए।
जानकारी के लिए आपका ह्रदय से कोटिशः आभार.
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