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Showing posts with the label राजस्थान के प्राचीन मंदिर

Samadhishwar Temple of Bhojraj --- भोजराज का समाधीश्‍वर प्रासाद-
डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’

राजा भोज ( 1010-1050 ई.) का   कुमारकाल चित्‍तौडगढ में गुजरा और यहीं पर आरंभिक कृतियों का सजृन किया।   यही पर वास्‍तु विषयक कृति के प्रणयन के साथ-साथ उन्‍होंने चित्‍तौडगढ में जिस प्रासाद का   निर्माण करवाया , वह समाधीश्‍वर प्रासाद है।   इसको समीधेश्‍वर मंदिर भी कहा जाता है। इसमें शिव की तीन मुंह वाली   भव्‍यतम प्रतिमा है , अलोरा से शिव के जिस मुखाकृति के भव्‍य प्रासाद का   क्रम चला , उसी की भव्‍यता यहां देखने को मिलती है। इनके शिल्पियों में वे   शिल्‍पीगण थे , जिनका संबंध अलोरा के विश्‍वकर्मा प्रासाद से रहा है। इन्‍हीं   में एक शिल्‍पधनी थे उषान् , उन्‍हीं से प्रेरित होकर भोज ने स्‍थापत्‍य कार्य को आगे बढाया , लिखित भी और उत्‍खचित रूप में भी। ( डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’ द्वारा संपादित ,   अनुदित समरांगण सूत्रधार की भूमिका , पेज 14) समीधेश्‍वर प्रासाद बहुत भव्‍य बना हुआ है , खासकर उसकी बाह्य भित्तियों का अलंकरण   तत्‍कालीन समाज और संस्‍कृति को जानने के लिए पुख्‍ता आधार लिए हुए हैं ,   वाहन , अलंकरण , खान-पान , परिधान , व्‍याख्‍यान , राजकीय यात्रा , सत्‍संग , चर्चा ,

प्रसिद्ध शक्तिपीठ वांकल धाम वीरातरा माता

भारत पाकिस्तान की सीमा पर स्थित राजस्थान सरहदी जिले बाड़मेर में चौहट्टन से लगभग 10 किमी की दूरी पर स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ वांकल धाम वीरातरा माता का मंदिर कई शताब्दियों से भक्तों की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। यहां प्रति वर्ष चैत्र, भादवा एवं मा घ माह की शुक्ल पक्ष की तेरस एवं चौदस को मेला लगता है। यहाँ अखंड ज्योत जलती रहती है। इस अखंड दीपक की ज्योति तथा घंटों व नगाड़ों की आवाज के बीच जब जनमानस नारियल जोत पर रखते है तो एक नई रोशनी रेगिस्तान के वीरान इलाके में चमक उठती है। वीरातरा माता की प्रतिमा प्रकट होने के पीछे कई दंतकथाएं प्रचलित है। एक दंतकथा के अनुसार प्रतिमा को पहाड़ी स्थित मंदिर से लाकर स्थापित किया गया। अधिकांश लोगों का कहना है कि यह प्रतिमा एक भीषण पाषाण टूटने से प्रकट हुई थी जिसका प्रमाण वे उस पाषाण को मानते है जो आज भी मूलमंदिर के बाहर दो टुकड़ों में विद्यमान है। वीरातरा माता की प्रतिमा के प्राकट्य की एक कहानी यह भी जुड़ी हुई है कि पहाड़ी पर स्थित वीरातरा माताजी के प्रति लोगों की अपार श्रद्धा थी। कठिन पहाड़ी चढ़ाई, दुर्गम मार्ग एवं जंगली जानवरों के डर के बावजूद

विभीषण का विश्व में एकमात्र मंदिर है कोटा के कैथून में

विश्व में विभीषण का एकमात्र मंदिर राजस्थान के कोटा जिले के उस स्थान में स्थित है जो कोटा डोरिया साड़ियों के हस्तकला उद्योग के लिए भी प्रसिद्ध है। जी हाँ मित्रों, कोटा से 16 किमी दूर कैथून कस्बे में विभीषण का प्रसिद्ध मंदिर एक बड़े भू-भाग में स्थित है। इसमें विभीषण की विशाल मूर्ति लगी है, जहां इसका विधिवत पूजा-पाठ होता है। यह प्राचीन मंदिर चौथी सदी के आसपास निर्मित माना जाता है। कैथून में होली के दिन से अगले 7 दिनों तक एक विशाल मेला लगता है जिसमें विभीषणजी की विशेष पूजा चलती है। इस आकर्षक सात दिवसीय मेले में लाखों लोग भाग लेते हैं तथा अधर्म व अहंकार के खिलाफ धर्म की विजय में विभीषण जी की मुख्य भूमिका की सराहना करके उनकी पूजा व स्तुति करते हैं। कैथून कस्बा अपने इस विशिष्ट होली उत्सव के लिए पूरे राजस्थान में प्रसिद्ध है। अन्याय के घोर विरोधी भक्तराज विभीषण की यहाँ बड़ी मान्यता है। होली के अवसर पर कैथून के इस विभीषण मंदिर में उत्सव-सा माहौल रहता है। इस अवसर पर होली के दिन शोभायात्रा निकाली जाती है जिसके पश्चात राक्षस हिरण्यकश्यप के विशाल पुतले का विधिवत दहन किया जाता है तथा इसके बाद राम

राजस्थान सामान्य ज्ञान-प्रतिदिन एक प्रश्न- 7 मिनी खजुराहो- "भंडदेवरा" Rajasthan GK-One Question Daily

भंड देवरा राजस्थान के हाड़ौती अंचल में बारां जिले के रामगढ़ में स्थित है। रामगढ़ के इस 10 वीं सदी के खजुराहो शैली के प्राचीन मंदिर को यहाँ के लोग "भंडदेवरा" कहते हैं। इसे यह नाम शायद इस मंदिर में मैथुन मूर्तियों के कारण दिया गया। प्राप्त अभिलेख के अनुसार नागवंशीय राजा मलय वर्मा द्वारा अपनी विजय के उपलक्ष्य में इसे निर्मित कराया गया था। इस मंदिर का जीर्णोद्वार 12 वीं सदी में राजा तृषा वर्मा द्वारा कराया गया था। वास्तुशिल्प की दृष्टि से यह एक बड़ा तथा महत्वपूर्ण मंदिर है। यह मंदिर एक तालाब के किनारे है तथा वर्तमान में यह पुरातत्व विभाग के अधीन है। यहाँ सुर-सुंदरियाँ, गंधर्व तथा देवलोकपाल की प्रतिमाएँ अत्यंत कलात्मक और मनोहारी है। कुछ प्रतिमाएँ जोड़ों में रतिमग्न है जिसके कारण ही इस मंदिर को "हाड़ौती का खजुराहो या राजस्थान का मिनी खजुराहो" की संज्ञा प्रदान की जाती है। रामगढ़ के पहाड़ पर कासनी तथा अन्नपूर्णा देवी के मंदिर प्राकृतिक गुफाओं में स्थित है। इस मंदिर तक जाने के लिए झाला जालिम सिंह द्वारा लगभग 750 सीढ़ियाँ बनवाई गई थी। प्रश्न- भंडदेवरा के मंदिर में किस मुख्य द

Dadhimati Mata temple of Goth Manglod-
गोठ मांगलोद का दधिमति माता मंदिर शक्तिपीठ-

गोठ और मांगलोद नामक गाँवों के मध्य नागौर जिला मुख्यालय से उत्तर पूर्व में लगभग 44 किमी दूरी पर जायल तहसील में एक प्राचीन शक्ति पीठ स्थित है जो दधिमति माता के मंदिर के नाम से विख्यात है। 'दाहिमा' (दाधीच) ब्राह्मण दधिमति माता को अपनी कुलदेवी मानते हैं तथा इस मंदिर को अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित मंदिर मानते हैं। यहाँ से प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार इस मंदिर का निर्माण विक्रम संवत 665 (608 ई.) के लगभग माना जाता है, जिसके अनुसार इस मंदिर के निर्माण के लिए दाधीच ब्राह्मणों द्वारा दान किया गया था, जिसका मुखिया 'अविघ्न नाग' था। कुछ विद्वान अभिलेख लिपि के अक्षर तथा राजस्थान में गुप्त राजाओं का शासन क्षेत्र के आधार पर इस मंदिर का निर्माण गुप्त शासनकाल के अंतिम दिनों में चौथी शताब्दी में हुआ मानते हैं। कुछ विद्वान उपरोक्त काल से असहमत होते हुए, इसे 9 वीं शताब्दी का मानते हैं।   दधिमति दधिची ऋषि की बहन थी। दधिमति माता को महालक्ष्मी का अवतार माना जाता है। दधिमति का जन्म माघ शुक्ल सप्तमी (रथ सप्तमी) को आकाश के माध्यम से हुआ माना जाता है। दधिमति माता का मंदिर देवी महामात्य का वर्

राजस्थान की धरोहर किराडू के प्राचीन मंदिर

यह स्थान राजस्थान के बाड़मेर से लगभग 35 किमी उत्तर-पश्चिम में है। किराडू के विश्व प्रसिद्ध पाँच मंदिरों का समूह बाड़मेर मुनाबाव रेलमार्ग पर खड़ीन स्टेशन से 5 किमी पर हथमा गांव के पास पहाड़ी के नीचे अवस्थित है। किराडू की स्थापत्य कला भारतीय नागर शैली की है। बताया जाता है कि यहाँ इस शैली के लगभग दो दर्जन क्षत विक्षत मंदिर थे लेकिन अभी ये केवल 5 हैं। यहाँ के मंदिरों में रति दृश्यों के स्पष्ट अंकन होने की वजह से किराडू को राजस्थान का खजूराहो भी कहा जाता है। सन् 1161 के एक शिलालेख के अनुसार किराडू का प्राचीन नाम किरात कूप था तथा यह किसी समय परमार राजाओं की राजधानी था। इतिहासकारों के अनुसार किरातकूप पर गुजरात के चालुक्य राजवंश के प्रतिनिधि के रूप में परमार शासकों का शासन था। बताया जाता है कि चन्द्रावती के परमार राजा कृष्णराज द्वितीय के पुत्र सच्चा राजा ने 1075 एवं 1125 ईस्वी के मध्य इस स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इन्हीं के वंशज सोमेश्वर ने सन् 1161 तक किराडू पर शासन किया तथा सन् 1178 तक यह महाराज पुत्र मदन ब्रह्मदेव के अधीन रहा और उसके बाद आसल ने यहाँ शासन किया था। यही वह काल था