वल्लभनगर का चूंडावत-शक्तावत का स्मारक -
उदयपुर से लगभग 40 किमी दूर वल्लभनगर नामक गाँव (पूर्व नाम ऊँठाळा) स्थित है। मेवाड़ के इस ऊँठाळा गाँव में जब सरदार वल्लभभाई पटेल का आगमन हुआ था तब उसका नाम बदल कर उनके नाम पर इसे वल्लभनगर कर दिया गया था। वल्लभनगर में चूण्डावत-शक्ताव त वीर राजपूत सरदारों का एक स्मारक बना है, जो उनके बलिदान एवं वीरता की अद्भुत कहानी बयाँ करता है। यह वीर-गाथा कुछ इस प्रकार से है-
बात मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह के काल की है। मेवाड़ में चूण्डावत और शक्तावत दो शाखाओं के राजपूत समान स्तर के वीर एवं पराक्रमी थे, किन्तु उस समय मेवाड़ की सेना में हरावल (युद्ध भूमि में अग्रिम पंक्ति) में रहने का अधिकार चूण्डावत राजपूतों को ही प्राप्त था तथा वे इसे अपना गौरव मानते थे। अब शक्तावत राजपूत भी कम वीर एवं पराक्रमी नहीं थे। उनकी भी यह तीव्र महत्त्वाकांक्षा थी कि युद्धभूमि के हरावल में रह कर अपनी वीरता के जौहर दिखाने का सौभाग्य हमारा होना चाहिए। शक्तावत वीरों ने अपनी इस उत्कंठा को महाराणा अमरसिंह के सामने रखा और कहा कि हुकुम, हम शक्तावत राजपूत चूण्डावतों से त्याग, बलिदान व शौर्य में आगे हैं, अत: सेना के हरावल में रहने का अधिकार हमें मिलना चाहिए, लेकिन चूण्डावत भी किसी तरह से अपना ये अधिकार छोड़ने को तैयार नहीं थे।
महाराणा अमरसिंह के काल में वल्लभनगर का किला मुग़ल बादशाह जहाँगीर के अधीन था तथा उसने फतेहपुर के नबाब समस खां को वहां का किलेदार नियुक्त कर रखा था। शक्तावतों और चूंडावतों की इस अद्भुत प्रतिस्पर्धा को देखकर महाराणा धर्म-संकट में पड़ गए कि किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर हरावल में रहने का अधिकार दिया जाय? इसका निर्णय करने के लिए उन्होंने यह निश्चित किया कि शक्तावतों तथा चूण्डावतों के दोनों की सेना की टुकड़ियाँ ऊँठाळा किले पर अलग-अलग दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे तथा जिस दल का वीर सबसे पहले दुर्ग में प्रवेश करेगा, उसे हरावल में रहने का हक़ दिया जाएगा।
इस प्रकार अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए निश्चित दिवस पर मृत्यु को ललकारते हुए दोनों ही दलों की सेना के वीर सैनानियों ने ऊँठाळा के किले पर हमला कर दिया। शक्तावत किले के सम्मुख पहुँच गए तथा उसके अभेद्य द्वार को तोड़ने का प्रयास करने लगे तो उसी समय चूण्डावत वीर भी पहुँच गए थे और वे पास ही दुर्ग की दीवार पर चढ़कर उसके अन्दर प्रवेश करने का प्रयत्न करने लगे। शक्तावतों ने किले के द्वार को हाथी की टक्कर से तोड़ने का निश्चय किया तथा जब हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढ़ाया तो द्वार में लगे हुए तीखे शूलों से डर कर हाथी पीछे हट गया। यह देख सरदार बल्लू शक्तावत अनोखे बलिदान के लिए उद्यत हुए और उन्होंने किले के द्वार के शूलों पर अपना सीना अड़ा दिया ताकि हाथी डर कर पीछे नहीं हटे। वीर बल्लू ने महावत को आदेश दिया कि हाथी से उसके शरीर पर टक्कर दे और किले का गेट तोड़ दें। उसके इस प्रकार के आत्मबलिदान की पहल को देखकर महावत सहम गया, किन्तु वीर बल्लू ने फिर से उसे क्रोधपूर्ण आदेश दिया, जिसकी पालना करते हुए महावत ने हाथी से द्वार पर जोरदार टक्कर मारी और इस टक्कर के कारण द्वार लगे हुए तीक्ष्ण शूल साहसी वीर बल्लू शक्तावत के सीने में धंस गए, किन्तु उसके साथ ही हाथी की जोरदार टक्कर से किले का वह द्वार भी टूट गया। इस प्रकार उस वीर सैनानी ने शक्तावतों की आन की खातिर मृत्यु को वरण कर लिया।
जब चूण्डावतों के सरदार जैतसिंह चूण्डावत ने यह देखा कि किले का द्वार तोड़कर शक्तावत उनसे पूर्व किले में प्रवेश करने वाले हैं तो उसने पहले दुर्ग में पहुँचने की शर्त जीतने के उद्देश्य से अपने एक साथी सैनिक को कहा कि मेरा सिर काटकर दुर्ग की दीवार के ऊपर से दुर्ग के अन्दर फेंक दो। उसका साथी जब ऐसा करने में सहम गया तो उसने स्वयं अपना सिर काटकर किले की दीवार के पार अन्दर फेंक दिया। फाटक तोड़कर जैसे ही शक्तावत वीरों के दल ने दुर्ग में प्रवेश किया, उससे पहले ही चूण्डावत सरदार का कटा मस्तक दुर्ग के अन्दर मौजूद था। इस प्रकार चूण्डावतों ने अद्भुत बलिदान देकर हरावल में रहने का अपना अधिकार बरकरार रखा। दोनों ही राजपूत शाखाओं के वीर सैनानियों के इस अद्भुत बलिदान को याद करने के लिए वल्लभनगर में एक छतरी स्मारक के रूप में बनी है जिसे चूंडावत-शक्तावत की छतरी कहा जाता है।
बहुत ही अच्छी जानकारी
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद...
Delete