भारत सरकार के अनुसार राजस्थान की जनजातियों की सूची-
1. Bhil, Bhil Garasia, Dholi Bhil, Dungri Bhil, Dungri Garasia, Mewasi Bhil, Rawal Bhil, Tadvi, Bhagalia, Bhilala, Pawra, Vasava, vasave.
2. Bhil Mina
3. Damor, Damaria
4. Dhanka, Tadvi, Tetaria, Valvi
5. Garasia (Excluding Rajput Garasia)
6. Kathodi, Katkari, Dhor Kathodi, Dhor Katkari, Son Kathodi, Son Katkari
7. Kokna, Kokni, Kukna
8. Koli dhor, tokre Koli, Kolcha, Kolgha
9. Mina
10. Naikda, Nayaka, Cholivala Nayaka, Kapadia Nayaka, Mota Nayaka, Nana Nayaka
11. Patelia Seharia, Sehria, Sahariya.
12. Seharia, Sehria, Sahariya.
डामोर जनजाति-
यह जनजाति डूंगरपुर जिले की सीमलवाड़ा पंचायत समिति के दक्षिण - पश्चिमी केन्द्र (गुदावाड़ा - डूंका आदि गाँवों में) केन्द्रित है। यह क्षेत्र डामरिया क्षेत्र कहलाता है।
सर्वाधिक डामोर डूंगरपुर जिले में है। जो कुल डामोरों का 61.61 प्रतिशत है। इसके पश्चात बांसवाडा व उदयपुर जिले में क्रमशः सर्वाधिक डामोर रहते है।
डामोर जनजाति के परमार गौत्र के लोगों का मानना है कि उनकी उत्पत्ति राजपूतों वंश से हुई जबकि सिसोदिया गौत्र के डामोर अपने को चित्तौड़ राज्य के सिसोदिया वंश से मानते हैं।
राठौर, चौहान, सोलंकी, मालीवाड़ तथा बारिया आदि गौत्र के डामोर स्वयं को उच्च वर्ग का मानते हैं।
गुजरात के चौहान एवं परमार वंश का सरदार पारिवारिक कलह से तंग आकर राजस्थान में बस गया और धीरे - धीरे उन्होंने स्थानीय डामोर से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए। ये लोग कालांतर में निम्न वर्ग के डामोर कहलाए।
गुजरात में भी भारी संख्या में अनेक गौत्रों के डामोर रहते हैं।
एक किंवदन्ती के अनुसार, डोम जाति के घर का पानी पी लेने वाले राजपूत सरदार के वंशज डामोर जनजाति में गिने गए।
भीलों की अपेक्षा डामोर अपने तन की शुद्धता का विशेष महत्व रखते हैं।
इनके अन्य संस्कार व रीति रिवाज, सामाजिक व्यवस्था मीणा व भील जनजाति से काफी मिलते जुलते हैं।
इस जनजाति के लोग एकल-परिवारवादी होते है। विवाह होते ही लड़के को मूल परिवार से अलग कर दिया जाता है। माता पिता प्रायः छोटे पुत्र के साथ रहना पसंद करते है।
इस जनजाति में विवाह का मुख्य आधार वधू मूल्य (दापा) होता है।
वर पक्ष को लड़की के पिता को वधू मूल्य देना पडता है। पुरूषो में बहु विवाह कर एक से अधिक पत्नी रखने की प्रथा प्रचलित है।
इनके गांव की सबसे छोटी इकाई फलां कहलाती है। डामोर जनजाति की पंचायत के मुखिया को मुखी कहा जाता है।
- होली के अवसर पर डामोर जनजाति द्वारा आयोजित उत्सव चाड़िया कहलाता है।
- डामोर पुरूष भी महिलाओं के समान गहने पहनने के शौकीन होते है।
- डामोर लोगों को डामरिया भी कहते है।
- इनमें नातेदारी प्रथा, तलाक व विधवा विवाह का प्रचलन मिलता है।
- डामोर गुजरात के प्रवासी होने के कारण स्थानीय भाषा के साथ - साथ गुजराती भाषा का भी प्रयोग करते है।
- इनके भाषा व रहन सहन में गुजरात का काफी प्रभाव देखने को मिलता है। ये सब खूबियां डामोर को एक अलग पहचान देती है।
इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है। यह जनजाति कभी भी वनों पर आश्रित नहीं रही है। गुजरात में सामान्यतयाः मैदानी क्षेत्रों में निवास करते है और कृषि के साथ-साथ पशुपालन का कार्य भी करते है।
डामोर समुदाय के प्रमुख मेले-
(1) पंच महल (गुजरात) में छैला बावजी का मेला।
(2) डूँगरपुर (राजस्थान) में सितम्बर माह में भरने वाला ग्यारस की रैवाडी का मेला।
सहरिया जनजाति-
राजस्थान के ये लोग सबसे डरपोक एवं पिछड़े हुए हैं। इसे भारत सरकार ने आदिम जनजाति समूह (पी.टी.जी) में शामिल किया है।
ये लोग मुख्यत: बारां जिले की शाहाबाद व किशनगढ़ पंचायत समितियों में निवास करते हैं।
सहरिया शब्द सहरा से बना है जिसका अर्थ रेगिस्तान होता है। इनका जन्म सहारा के रेगिस्तान में हुआ माना जाता है। मुगल आक्रमणों से त्रस्त होकर ये लोग भाग गए और झूम खेती करने लगे।
सहराना – इनकी बस्ती को सहराना कहते है। इस जनजाति के गांव सहरोल कहलाते हैं। सहराना के बीच में एक छतरीनुमा गोल या चौकोर झौपडी या ढालिया बनाया जाता है। जिसे हथाई या बंगला कहते है यह सहरिया समाज की सामुदायिक सम्पति होती है।
सहरिया के पच्चास गौत्र हैं। इनमें चौहान और डोडिया गोत्र राजपूत गौत्र से मिलते हैं। ये समूह स्वयं को राजपूतों की वो भ्रष्ट संतान हैं जो कभी गाय को मार कर उसका मांस खा गए।
सहरिया जनजाति के मुखिया को कोतवाल कहा जाता हैं।
सहारिया जाति के लोग स्थायी वैवाहिक जीवन को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। यद्यपि नाता प्रथा विवाहिता एवं कुंवारी दोनों मानते हैं। अतीत में नाता प्रथा के लिए स्रियों को शारीरिक दण्ड दिया जाता था, आजकल आर्थिक दंड व कोतवाल के हस्तक्षेप द्वारा मामला सुलटा लिया जाता है।
अन्य समाज में जो स्थान मुखिया व पटेल का होता है, वही स्थान सहरिया समाज में कोतवाल का होता है।
सहरिया जनजाति के गुरू महर्षि वाल्मिकी है। इस जनजाति की सबसे बड़ी पंचायत चौरसिया कहलाती है, जिसका आयोजन सीता बाड़ी नामक स्थान पर वाल्मिकी जी के मंदिर में होता है।
इस जाति के लोग हिन्दू त्यौहारों और देवी देवताओं से जुड़े धार्मिक उत्सव मनाते हैं, ये लोग तेजाजी को आराध्य के रूप में विशेष तौर पर मानते हैं। तेजाजी को इनका कुलदेवता माना जाता है। तेजाजी की स्मृति में भंवरगढ़ में एक मेला लगता है जिसमें इस जनजाति के लोग बड़े ही उत्साह व श्रद्धा से भाग लेते हैं। ये लोग अपनी परम्परा के अनुसार उठकर स्रियों के साथ मिल - जुलकर नाचते गाते हैं तथा राई नृत्य का आयोजन करते हैं, होली के बाद के दिनों में ये सम्पन्न होता है।
सहरिया जनजाति की कुल देवी 'कोडिया देवी' कहलाती है।
सहरिया जनजाति का सबसे बड़ा मेला 'सीताबाड़ी का मेला' है जो बारां जिले के सीताबाड़ी नामक स्थान पर वैशाख अमावस्या को भरता है। यह मेला हाडौती आंचल का सबसे बड़ा मेला है। इस मेले को सहरिया जनजाति का कुंभ कहते है।
इस जनजाति का एक अन्य मेला कपिल धारा का मेला है जो बारां जिले में कार्तिक पूर्णिमा को आयोजित होता है।
वेशभूषा :- सहरिया पुरूषों की अंगरखी को सलुका तथा इनके साफे को खफ्टा कहते हैं इनका जबकि इनकी धोती पंछा कहलाती है। ये अपने कंघे पर तौलिया धारण करते है। पुरूष कानों में बालियां, गले में ताबीज और चेन तथा हाथों की कलाई में कड़ा पहनते है।
ये लोग स्थानांतरित कृषि करते हैं। इस जनजाति में भीख मांगना वर्जित है।
सहरिया जनजाति में लड़की का जन्म शुभ माना जाता है।
इस जनजाति का प्रमुख नृत्य शिकारी नृत्य है।
सहरिया जनजाति राज्य की सर्वाधिक पिछड़ी जनजाति होने के कारण भारत सरकार ने राज्य की केवल इसी जनजाति को आदिम जनजाति समूह की सूची में रखा गया है।
इनके सघन गाँव देखने को मिलते हैं। ये छितरे छतरीनुमा घरों में निवास करते हैं। इनके मिट्टी, पत्थर, लकडी और घासफूस के बने घरों को टापरी कहते है।
इनका एक सामूहिक घर भी होता है जहां वे पंचायत आदि का भी आयोजन करते हैं। इसे वे 'बंगला' कहते हैं।
एक ही गाँव के लोगों के घरों के समूह को इनकी भाषा में 'थोक' कहा जाता है। इसे ही अन्य जाति समूह फला भी कहते हैं।
ये लोग घने जंगलों में पेड़ों पर या बल्लियों पर जो मचाननुमा झोपड़ी बनाते है, उसको टोपा (गोपना, कोरूआ) कहते है।
अनाज तथा घरेलू सामान को सुरक्षित रखने के लिए सहरिया परिवार घर के अंदर मिट्टी व गोबर से सुंदर एवं कलात्मक विभिन्न आकारों की कोठिया बनाते है। सहरिया लोग अनाज संग्रह हेतु मिट्टी से जो छोटी कोठियां बनाते हैं, जिन्हें कुसिला कहते हैं। इनके आटा संग्रह करने का पात्र भंडेरी कहलाता है।
इनके द्वारा मकर संक्रांति पर लडकी के डंडो से ‘‘लेंगी’’ खेला जाता है। दीपावली के पर्व पर हीड गाने की परम्परा प्रचलित है। वर्षा ऋतु में लहंगी एव आल्हा गया जाता है।
धारी संस्कार
मृत्यु के तीसरे दिन मृतक की अस्थियां व राख एकत्र कर रात्रि में साफ आंगन में बिछाकर ढक देते है एवं दूसरे दिन उसे देखते है। यह मान्यता है कि राख में जिस आकृति के पदचिन्ह बनते है, मृतक उसी योनी में पुनर्जन्म लेता है। आकृति देखने के बाद अस्थियों एवं राख को सीताबाडी में स्थित बाणगंगा या कपिलधारा में प्रवाहित कर दिया जाता है। सहरिया समुदाय में इसे धारी संस्कार कहते है।
सहरिया आदिम जाति क्षेत्र की ग्राम संख्या व जनसंख्या-
राज्य की एक मात्र आदिम जाति सहरिया है, जो बारां जिले की किशनगंज एवं शाहबाद तहसीलों में निवास करती है। उक्त दोनों ही तहसीलों के क्षेत्रों को सहरिया क्षेत्र में सम्मिलित किया जाकर सहरिया वर्ग के विकास के लिये सहरिया विकास समिति का गठन किया गया है। क्षेत्र की कुल जनसंख्या 2.73 लाख है, जिसमें से सहरिया क्षेत्र की अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 1.02 लाख है जो क्षेत्र की कुल जनसंख्या का 37.44 प्रतिशत है।क्र.सं.पंचायत समिति** क्षेत्रफल (वर्ग किमी)ग्राम संख्यावर्ष 2011 की जनगणना के अनुसारकुल जनसंख्या की तुलना में अनु. जनजाति की जनसंख्या का प्रतिशत* कुल जनसंख्या की तुलना में सहरिया जनसंख्या का प्रतिशतकुल जनसंख्याअनु. जनजाति जनसंख्यासहरिया जनजाति की जनसंख्याजिला बांरा1.शाहबाद1460236105875418083468739.4932.762.किशनगंज1451213166864603163930836.1523.56कुल29114492727391021247399537.4427.13* सहरिया जनजाति जनसंख्या का विवरण मा.ला. वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान, उदयपुर द्वारा सन् 2002 में किए गए सर्वे के आधार पर है।