राजसमन्द का राजप्रशस्ति शिलालेख-
राजप्रशस्ति महाकाव्य की रचना श्री रणछोड़ भट्ट नामक संस्कृत कवि द्वारा मेवाड़ के महाराणा राजसिंह की आज्ञा से 1676 ई. में की थी। इस ग्रन्थ के लिखे जाने के छ: वर्ष पश्चात महाराणा जयसिंह की आज्ञा से इसे शिलाओं पर उत्कीर्ण किया गया। छठी शिला में इसका संवत 1744 दिया हुआ है। इसे 25 बड़ी शिलाओं में उत्कीर्ण करवा कर राजसमन्द झील की नौ चौकी पाल (बांध) पर विभिन्न ताकों में स्थापित किया गया। यह भारत का सबसे बड़ा शिलालेख है। इसका प्रत्येक शिलाखंड काले पत्थर से निर्मित है जिनका आकार तीन फुट लम्बा तथा ढाई फुट चौड़ा है। प्रथम शिलालेख में माँ दुर्गा, गणपति गणेश, सूर्य आदि देवी-देवताओं की स्तुति है। संस्कृत भाषा में प्रणीत इस महाकाव्य के शेष 24 शिलालेखों में प्रत्येक में एक-एक सर्ग है तथा इस प्रकार कुल 24 सर्ग है। इसमें कुल 1106 श्लोक है। संस्कृत भाषा में होने के बावजूद इसमें अरबी, फ़ारसी तथा लोकभाषा का भी प्रभाव है। इसमें मुख्यतः महाराणा राजसिंह के जीवन-चरित्र एवं उनकी उपलब्धियों का वर्णन किया गया है किन्तु इसके प्रथम 5 सर्गों में मेवाड़ का प्रारंभिक इतिहास दिया गया है। इसके अलावा इसमें 17 शताब्दी में मेवाड़ की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनैतिक दशा का भी वर्णन मिलता है। यह एक ऐसा काव्य है जिसमें कविता कम और इतिहास प्रधान है। कवि ने महाराणा राजसिंह से संबंधित जिन घटनाओं का वर्णन इसमें किया है वो उसकी स्वयं की आँखों देखी है। इसमें राजसमन्द झील के निर्माण के दुष्कर कार्य, इस पर हुए खर्च तथा इसकी प्रतिष्ठा का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें तत्कालीन मेवाड़ की संस्कृति, वेशभूषा, शिल्पकला, दान-प्रणाली, मुद्रा, युद्ध-नीति, धर्म-कर्म आदि का भी अच्छा उल्लेख है। इतिहासकार डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू के अनुसार राजप्रशस्ति पहला अभिलेख है, जिसमें पृथ्वीराज रासो का प्रसंग संस्कृत में उद़धृत किया गया है। इसमें बप्पा रावल की कथा को एकलिंगपुराण से उठाया गया है। इसमें सूर्यवंश की वंशावली के साथ गुहिल वंश का संबंध स्थापित किया गया है और इस वंश को विप्र के बजाय सूर्यवंश बताने का प्रयास किया गया है। रणछोड भट्ट की एक अन्य कृति है जयसमंद प्रशस्ति, जो अप्रकाशित है।
राजसमन्द के शिक्षाविद डॉ. राकेश तैलंग के अनुसार राज-प्रशस्ति चंदवरदाई के काल को एक नई सोच के साथ निर्धारण करने की संभावना को प्रस्तुत करता है। राज-प्रशस्ति के मुताबिक चंदवरदाई कि स्थिति 16 वीं शताब्दी है, जबकि दूसरी ओर प्रायः चंदवरदाई का काल 11वीं शताब्दी में पृथ्वीराज राठौड़ के साथ जोड़ कर देखा जाता है। उनके अनुसार पंडित रणछोड़ भट्ट पद्माकर और लाल कवि की पूर्वज परंपरा के तैलंग ब्राह्मण थे जिन्हें इस काव्य के लेखन के लिए सागर (म.प्र.) से बुलाया गया था।
राजप्रशस्ति की शिलाओं की विषय वस्तु -
प्रथम शिला-
भगवान राम शिव भवानी गणेश व सूर्य स्तुति सहित पंडित रणछोड़ भट्ट द्वारा ग्रंथ की कुशल पूर्णता की कामना।
द्वितीय शिला-
कवि द्वारा कवि द्वारा स्वयं के परिवार के परिचय के साथ राजसमंद निर्माण और राज प्रशस्ति के लेखन काल का उल्लेख है। यही कवि ने अपने आश्रयदाता महाराणा श्री राज सिंह जी का यशोगान भी किया है।
तृतीय शिला-
यहां उदयपुर के विवस्वान वंशी अर्थात सूर्यवंशी महाराणा का वर्णन किया गया है।
चतुर्थ शिला-
इस शिला में सूर्यवंशी 4 आदित्य राजा सहित गुहिल वंश का वर्णन है तथा सिसोदिया वंश के विस्तार का उल्लेख है।
पंचम शिला-
महाराणा उदय सिंह से लेकर राणा प्रताप के वंश का यहां वर्णन है। राणा रतन सिंह और अलाउद्दीन खिलजी के युद्ध सहित मोकल और महाराणा कुंभा की परंपरा का उल्लेख किया गया है तथा साथ ही हल्दीघाटी के युद्ध का भी वर्णन इसमें है।
Sir is rajprashasti kis se prerit hokar likhi gyi haj
ReplyDeleteइसका लेखन महाराणा राजसिंह की आज्ञा से किया गया था ..
ReplyDeleteयहाँ पर अमरसिंह ने अपना अंतिम समय बिताया था इसी कारण
ReplyDeleteVery good website, thank you.
ReplyDeleteOdia Book Salabega
Order Odia Books
Odia Books Online