राजस्थान में पंचायतीराज एवं ग्रामीण विकास भारत प्राचीन काल से गांवों का देश रहा है। यहाँ की अधिकांश आबादी गांवों में ही निवास करती थी। भारत की प्राचीन अर्थव्यवस्था मुख्यतः ‘ ग्राम प्रधान अर्थव्यवस्था ’ थी। प्राचीन भारत के हस्त-शिल्प तथा कृषि-उत्पाद विश्वभर में विख्यात थे। ग्रामीण जनता की आवश्यकतायें सीमित थी जिनकी पूर्ति ग्रामीण उत्पादन द्वारा ही पूरी हो जाती थी। गांव आर्थिक दृष्टि से प्रायः आत्मनिर्भर थे। ग्रामीण जनसंख्या व्यावसायिक आधार पर किसानों , दस्तकारों और सेवकों में विभाजित थी। भारत के प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ ऋग्वेद में ' सभा ' एवं ' समिति ' के रूप में लोकतांत्रिक स्वायत्तशासी पंचायती संस्थाओं का उल्लेख मिलता है। गांव के समस्त विवाद उसकी पंचायत द्वारा ही निपटाए जाते थे। देश के विभिन्न राज्यों के नगरों की राजनैतिक उथल पुथलों के बावजूद सत्ता परिवर्तनों से निष्प्रभावित रहकर भी ग्रामीण स्तर पर यह स्वायत्तशासी इकाइयां पंचायतें आदिकाल से निरन्तर किसी न किसी रूप में कार्यरत रही हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मध्यस्थों का अभाव था। यद्यपि कृष
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