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Jama Masjid of Tonk

टौंक की जामा मस्जिद -  टोंक की जामा मस्जिद का निर्माण टोंक रियासत के नवाब अमीर खां द्वारा 1246 हिजरी में शुरू करवाया था। बाद में उसके पुत्र नवाब वजीरुदौला ने 1297 से 1298 हिज़री संवत में इसे पूर्ण करवाया तथा। यह भारत की बड़ी मस्जिदों में से एक है और बीते युग की मुगल वास्तुकला को प्रदर्शित करती है।    अद्भुत है जमा मस्जिद की सुनहरी चित्रकारी और मीनाकारी- जामा मस्जिद नामक इस इमारत में इबादतगाह सहित चार विशाल मीनारें अपनी ऊँचाई और सुन्दर वास्तुकला के लिए अलग ही पहचान रखती है। मीनार की ऊंचाई इतनी है कि इन्हें काफी दूर से देखी जा सकती हैं। इस मस्जिद के मुगल शैली में निर्मित चार दरवाजे है। मस्जिद की मुख्य ईमारत पर तीन गुम्बद उसी तरह से निर्मित है जैसे दिल्ली व आगरा के शाहजहाँ एवं अन्य मुग़ल बादशाहों के महलों में बनाए गए हैं। यहाँ की स्थापत्य कला सोने-चाँदी व नीलम, पन्नों के रंग से की गई आकर्षक व मनोहारी बेलबूटों की चित्रकारी के कारण यह मस्जिद अपनी अनूठी पहचान रखती है। दीवारों पर बने हुए ये सुनहरे चित्र और मीनाकारी इस मस्जिद की सुंदरता को कई गुना बढ़ाते हैं।

राजस्थान सामान्य ज्ञान आभूषण क्विज ( Rajasthan GK jewelry Quiz)

1. सटका शरीर के किस अंग का आभूषण है? अ. गला ब. कमर स. नाक द. पैर उत्तर- ब 2. कंदौरा शरीर के किस अंग पर पहना जाता है? अ. सिर ब. कमर स. उँगली द. पैर उत्तर- ब 3. निम्नांकित में से सिर पर पहने जाने वाला आभूषण है- अ. बोर या बोरला ब. नथ स. बिछिया द. टड्डा उत्तर- अ 4. रखड़ी आभूषण किस अंग का है? अ. कमर ब. सिर स. हाथ द. गला उत्तर- ब 5. निम्नांकित में से पैर में पहने जाने वाले आभूषण हैं- अ. हंसली, सूरलिया, बाली ब. करधनी, कड़ा, बंगड़ी स. टनका, हिरना, पैंजनी द. मोली, सूरमा, बंगड़ी उत्तर- स 6. निम्नांकित में से पुरुषों द्वारा पहने जाने वाला आभूषण है- अ. बोरला ब. मुरकिया स. बंगड़ी द. टड्डा उत्तर- ब 7. पंचलड़ी, हंसुली, हाली व तिणणिया किस अंग पर पहने जाते हैं- अ. सिर ब. गला स. कमर द. बाजू उत्तर- ब 8. राजस्थान का मशहूर लोकगीत गोरबंद किस पशु के गले में पहने जाने वाले आभूषण से संबंधित है? अ. घोड़ा ब. बैल स. ऊँट द. बकरी उत्तर- स 9. गले में बाँधी जाने वाली देवी देवताओं की प्रतिमा को कहते हैं- अ. नावा ब. चौकी स. उपर्युक्त दोनों द. इनमें से कोई नहीं उत्त

Mandana Folk Art of Rajasthan- राजस्थान की मांडणा लोक कला

राजस्थान की लोक आस्था में मांडनो का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। त्योहारों, उत्सव और मांगलिक कार्यों में मांडणा प्रत्येक घर-आंगन की शोभा होता है। मांडणा कला का भारतीय संस्कृति में सदियों से विशिष्ठ स्थान है। दीपोत्सव के अवसर पर तो यह कला लोकप्रथा का स्वरूप धारण कर लेती है। इस उत्सव पर ग्रामीण अंचल में घरों की लिपाई, पुताई व रंगाई के साथ मांडने बनाना अनिवार्य समझा जाता है। राजस्थान में ग्रामीण अंचल के अलावा शहरी क्षेत्र में भी मांडणा अंकन के जीवंत दर्शन होते है किंतु कतिपय घरों में इनके अंकन का माध्यम बदल जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में मांडना उकेरने में गेरु या हिरमिच एवं खडिया या चूने का प्रयोग किया जाता है। इसके निर्माण में गेरु या हिरमिच का प्रयोग पार्श्व (बैकग्राउंड) के रूप में किया जाता है जबकि इसमें विभिन्न आकृतियों व रेखाओं का अंकन खड़िया अथवा चूने से किया जाता है। शहरी क्षेत्रों में मांडने चित्रण में गेरु व खडिया के स्थान पर ऑयल रंगों का अक्सर उपयोग होने लगा है। नगरों में सामान्यतः लाल ऑयल पेंट की जमीन पर विभिन्न रंगों से आकारों का अंकन किया जाता है। दीपावली पर प्रत्

Pichwayi Art of Nathdwara | नाथद्वारा की पिछवाई चित्रकला

Pichwayi Art of Nathdwara | नाथद्वारा की पिछवाई चित्रकला राजस्थान में उदयपुर से करीब 50 किमी दूर राजसमंद जिले में स्थित छोटा - सा धार्मिक नगर 'नाथद्वारा' पुष्टिमार्गीय वल्लभ संप्रदाय की प्रमुख पीठ है। यहाँ की प्रत्येक सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधि पर पुष्टिमार्ग का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। नाथद्वारा शैली की चित्रकला तो पूर्णरूपेण पुष्टिमार्ग से ओतप्रोत है। नाथद्वारा की चित्र शैली का उद्भव भी श्रीनाथजी के नाथद्वारा में आगमन के साथ ही माना जाता है। नाथद्वारा चित्रशैली का सबसे महत्वपूर्ण अंग है - पिछवाई चित्रकला। पिछवाई शब्द का अर्थ है पीछेवाली। पिछवाई चित्र आकार में बड़े होते हैं तथा इन्हें कपड़े पर बनाया जाता है। नाथद्वारा के श्रीनाथजी मंदिर तथा अन्य मंदिरों में मुख्य मूर्ति के पीछे दीवार पर लगाने के लिये इन वृहद आकार के चित्रों को काम में लिया जाता है। ये चित्र मंदिर की भव्यता बढ़ाने के साथ - साथ भक्तों को श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र की जानकारी भी देते हैं। चटक रंगों में डूबे श्रीकृष्ण की लीलाओं के दर्शन कराती ये पिछवाईयां आगंतुकों को अपनी ओर सहसा आकर्षित करती है। श्री

राजस्थान के लोक नाट्य

राजस्थान में लोक नाट्य जन जीवन को सदैव आह्लादित करते रहे हैं। गीतों व नृत्यों की प्रधानता लिए इन लोक नाट्य में दर्शकों एवं अभिनेता के बीच दूरी प्रायः नहीं होती है। अधिकतर इनमें वेशभूषा प्रतीकात्मक ही होती है। ये लोकनाट्य अधिकतर ऐतिहासिक व पौराणिक आख्यानों पर आधारित होते हैं लेकिन आजकल इनमें समसामयिक राजनीति और शासन व्यवस्था को भी अभिव्यक्त किया जाने लगा है। वैसे तो इनमें पुरुष व स्त्री दोनों ही भाग लेते हैं लेकिन कई बार पुरुष ही स्त्री की वेशभूषा में अभिनय करते हैं। इन लोक नाट्य में राजस्थान की लोक संस्कृति की झलक मिलती है किन्तु सीमावर्ती जिलों के लोक नाट्य में पड़ोसी राज्य की संस्कृति का प्रभाव भी देखा जाता है जैसे अलवर और भरतपुर के लोकनाट्य में हरियाणा व उत्तर प्रदेश की लोक संस्कृति के मिले जुले रूप के दर्शन होते हैं तो धौलपुर एवं सवाईमाधोपुर के लोकनाट्य में ब्रज संस्कृति देखी जा सकती है। वैसे तो इन लोक नाट्य में जाति विशेष की बाध्यता नहीं है लेकिन बहुतायत में कुछ विशेष जातियों जैसे नट, भाट, भाँड आदि जाति के लोगों की होती है। यहाँ जनजाति यथा- भील, गरासिया, मीणा, सहरिया, बंजारे आदि के

राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र - घन लोक वाद्य

घन वाद्य वे वाद्य हैं लकड़ी या धातु के परस्पर आघात करके या ठोंक कर बजाए जाते हैं। खडताल- इस घन वाद्य 'खड़ताल' में लकड़ी के चार टुकड़े होते हैं तथा एक हाथ में दो-दो टुकड़ों को पकड़ कर उनका परस्पर आघात करके बजाया जाता है। लकडी के टुकडों के बीच पीतल की छोटी-छोटी तस्तरीनुमा आकृतियाँ भी लगी होती है। इसे माँगणियार व लंगा अपने गीतों की प्रस्तुति में करते हैं। इस वाद्य यंत्र को करताल भी कहते हैं। झाँझ- मिश्र धातु से बने दो चक्राकार टुकड़े होते हैं जिनके मध्य भाग में छेद होता है। प्रत्येक झाँझ के छेद में एक डोरी लगी होती है व बाहर की ओर से इस डोर पर कपड़े के गुटके लगे होते हैं जिन्हें हाथों से पकड़ कर एक दूसरे पर आघात कर बजाया जाता है। मंजीरा- इसे भजन गायन में प्रयुक्त किया जाता है। मिश्र धातु से बनी दो कटोरियां होती है जिनका मध्य भाग गहरा होता है। इनके मध्य में छेद होते हैं जिनमें डोर लगी होती है। इन डोरियोँ से दोनों हाथों में एक एक मंजीरा पकड़ कर परस्पर आघात कर बजाया जाता है। थाली- यह घन वाद्य एक कांसे की थाली होती है जिसके एक किनारे पर छेद करके एक

राजस्थान के अवनद्ध लोक वाद्य

अवनद्ध वाद्य वे होते हैं जिनके मुँह पर चमड़ा या खाल मढ़ी होती है। इन्हें हाथ या डंडों से बजाया जाता है। 1. मांदल- मिट्टी से बना यह लोक वाद्य मृदंग की आकृति की तरह गोल घेरे जैसा होता है। इस पर हिरण या बकरे की खाल मंढ़ी होती है। दोनों ओर की चमड़े के मध्य भाग में जौ के आटे का लोया लगाकर स्वर मिलाया जाता है। इसे हाथ के आघात से बजाया जाता है। यह भीलों व गरासियों का प्रमुख वाद्य है। गवरी और गैर नृत्य के अलावा मेवाड़ के देवरों में इसे थाली के साथ बजाया जाता है। 2. ताशा- तांबे की चपटी परात पर बकरे का पतला कपड़ा मंढ़ कर इसे बनाया जाता है तथा बाँस की खपच्ची से बजाया जाता है। इसे मुसलमान अधिक बजाते हैं। 3. ढोल- राजस्थान के लोक वाद्यों इसका प्रमुख स्थान है। यह लोहे या लकड़ी के गोल घेरे पर दोनों तरफ चमड़ा मढ़ कर बनाया जाता है। इस पर लगी रस्सियों को कड़ियों के सहारे खींच कर कसा जाता है। वादक इसे गले में डाल कर लकड़ी के डंडे से बजाता है। 4. नौबत- नौबत अवनद्ध वाद्य है जिसे प्रायः मंदिरों या राजा-महाराजाओं के महलों के मुख्य द्वार पर बजाया जाता था। इसे धातु की लगभग चार फु

गवरी - राजस्थान का एक लोक नृत्यानुष्ठान -- Gavri - a Folk Dance Ritual of Rajasthan

मेरु नाट्यम है गवरी- राजस्थान की समृद्ध लोक परम्परा में कई लोक नृत्य एवं लोक नाट्य प्रचलित है। इन सबसे अनूठा है ' गवरी ' नामक ' लोक नृत्य-नाटिका ' । 'गवरी ' उन भीलों का एक मेरु नाट्यम हैं। यह एक नृत्य नाटक है, जो कि अनुकरण (नक़ल mime) और वार्तालाप को जोड़ता है, और ''गवरी नृत्य या राई नृत्य'' के नाम से जाना जाता है। गवरी में अभिनीत किये जाने वाले दृश्यों को 'खेल', ' भाव' या सांग कहा जाता है। यह भील जनजाति का एक ऐसा नाट्य-नृत्यानुष्ठान है, जो सैकड़ों बरसों से प्रतिवर्ष श्रावण पूर्णिमा के एक दिन पश्चात प्रारंभ हो कर सवा माह तक आयोजित होता है। इसका आयोजन मुख्यत: उदयपुर और राजसमंद जिले में होता है। इसका कारण यह है कि इस खेल का उद्भव स्थल उदयपुर माना जाता है तथा आदिवासी भील जनजाति इस जिले में बहुतायत से पाई जाती है। गवरी का कथानक भगवान शिवजी के इर्द-गिर्द होता है, जो इसके केंद्रीय चरित्र है, तथा इस नृत्य-नाटिका में उनका चरित्र बहुत ही आश्चर्यजनक रूप में चित्रित होता है। गवरी में जो गाथाएं सुनने को मिलती हैं ,