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रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रवर्तक संत दरियाव जी

रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रवर्तक संत दरियाव जी -

रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रवर्तक संत दरियाव जी
रामस्नेही सम्प्रदाय की प्राचीन शाखा ‘रेण’ के संस्थापक दरिया साहब की वाणी में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है जिसके आधार पर उनकी जन्म-तिथि या उपस्थिति काल का निर्णय किया जा सके। इस सम्बंध में हमें बहिर्साक्ष्यों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। दरिया साहब के प्रशिष्य और पूरणदास जी के शिष्य पदुमदास कृत ‘जन्म लीला’ के अनुसार-
''सतरा से के समत बरस तैंतीसा भारी।
मास भादवा बद अष्टमी तिथ इदकारी।।''
अर्थात दरिया साहब का आविर्भाव भादों कृष्ण अष्टमी, वि.सं. 1733 को हुआ था।
दरिया साहब के एक दूसरे शिष्य किशनदास जी के प्रपौत्र शिष्य मदाराम जी ने अपनी रचना दरिया साहब की परची में दरिया साहब का जन्म काल भाद्रपद कृष्ण आठ, संवत 1733 ही माना है-
''समत सत्रा सो जाणल्यो पुन तैतीसा सार।
बदी भादवा अष्टमी जन दरिया अवतार।।''
सन्त जयराम दास जी ने भी “श्री दरियाव महाराज की लावणी” में भी इसी तिथि को माना है -
''सतरासें तेतीस का जन्म अष्टमी जाण।
जन्म लियो दरियावजी सरे रोप्या भक्ति नो साण।।''
सन्त आत्माराम जी भी अपनी लावणी में इसी तिथि की पुष्टि की है -
“सतरा सौ की सन्मत माही, तेहतीसा की साल।
भादवा बद अष्टमी शुभ कारी।।”
आचार्य क्षितिमोहन सेन, डॉ. रामकुमार वर्मा, पं. परशुराम चतुर्वेदी, पं. मोतीलाल मेनारिया, डॉ. राधिका प्रसाद त्रिपाठी, डॉ. सतीश कुमार, आदि विद्वानों ने भी इसी तिथि को स्वीकार किया है।
रेण पीठाचार्य श्री क्षमारामजी महाराज द्वारा प्रकाशित ‘श्री दरियाव महाराज की अनुभव गिरा’ में दरियाव साहब की जन्मतिथि इस प्रकार दी है-
''सतरा सौ की साल में वर्ष बतीसो जान।
मास भाद्र बदी अष्टमी प्रगटे कृपा निधान।।''
उपर्युक्त उद्धरणानुसार दरिया साहब की जन्म तिथि भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, 1732 ठहरती है। उपर्युक्त दोनों तिथियों में दिन और मास का अन्तर न होते हुए भी पूरे एक वर्ष का अन्तर पड़ जाता है। इनमें से संवत 1733 की तिथि ही अधिक सही जान पड़ती है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने इनकी जन्म तिथि संवत 1733 भाद्रपद मानते हुए कृष्णाष्टमी के स्थान पर शुक्लाष्टमी लिखा है जो संभवत भूलवश लिख दिया होगा। दरियाव साहब की समाधि पर लगे शिलालेख पर भी यही जन्मतिथि अंकित है। पदुमदास और मदाराम जी दरिया साहब के प्रशिष्यों में से थे। इसलिए इन लोगों के साक्ष्य अधिक प्रमाणिक माने जाने चाहिए। साथ ही सभी विद्वानों ने भी इसी तिथि का समर्थन किया है। अतः इनकी जन्म तिथि संवत 1733 विक्रम भाद्रपद कृष्णाष्टमी ही सिद्ध होती है।

दरिया साहब की जन्म स्थान एवं माता-पिता -

दरिया साहब के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में विद्वानों में मतान्तर नहीं है। दरिया साहब का जन्म स्थान ‘जैतारण’ (पाली) नामक ग्राम था। इस सम्बन्ध में सभी विद्वान सहमत है। पदुमदास, मदाराम तथा जयरामदास ने इनका जन्म-स्थान क्रमशः जैतारण (पाली) ही लिखा है।
(क) मारू मरूधर खंडपुरी, जैतारण भारी।
जन दरिया अवतार धार, आया ब्रह्मचारी।।

(ख) जैतारण में आण प्रगंटया।
दरिया दादू उही ईसट संभाव।।

(ग) भरतषंड मुरधर के मांई सेर एक जैतारण जांहि।
जलमधर मुनिवंतन आए गीगन सुर पुषपन झर लाये।।
‘रेण’ सम्प्रदाय के संत भावनादास, बलरामदास शास्त्री, हरिनारायण शास्त्री, रामकिशोर शास्त्री, संत आत्माराम आदि संतों ने इन्हें इनके लालन-पालन करने वाले पिता ‘मानसा’ के द्वारा ‘द्वारिका’ में समुद्र में स्नान करते समय जल में तैरते हुए शिशु के रूप में प्राप्त होना माना है। जो ठोस तथ्यों के अभाव में इस वैज्ञानिक युग में अतिवाद से प्रेरित काल्पनिक कहानी ही मानी जा सकती है।
डॉ. राधिका प्रसाद त्रिपाठी के अनुसार-  

“कहने की आवश्यकता नहीं कि यह कल्पना साम्प्रदायिक प्रवृति के अतिवाद से प्रेरित है जिसका एक मात्र उद्देश्य महापुरूषों की जीवन यात्रा पर अलौकिकता का अभेद्य आवरण चढ़ा कर उनके श्रद्धालुओं की श्रद्धा-भावना को उद्दीप्त करना होता है।”
दरिया साहब के माता-पिता के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित है- एक तो ‘पोषक’ तथा दूसरा जन्मदाता के रूप में।
  • प्रथम मत के अनुसार ये अपने पोषक माता-पिता को द्वारिका के पास समुद्र (दरियाव) की लहरों में मिले थे और इनके पोषक माता-पिता ने इनका लालन-पालन किया था। दरियाव (सागर) से प्राप्त होने के कारण इनका नाम ‘दरिया’ या ‘दरियाव’ रख दिया गया था तथा गींगाबाई और मानसा इनके पोषक माता-पिता थे। 
  • दूसरी मान्यता के अनुसार इनका जन्म गींगाबाई के गर्भ से हुआ था। रामस्नेही सम्प्रदाय के धार्मिक संतो भावनादास, बलरामदास शास्त्री, हरिनारायण शास्त्री तथा श्री संतमाल कर्ता को छोड़कर शेष सभी विद्वानों ने दूसरी मान्यता को ही स्वीकार किया है। 
वास्तव में दरिया साहब गींगा बाई और मानसा की ही संतान थे।

देवी उत्पत्ति में विश्वास रखने वाले भावुक सन्तों ने भी इनका पालण-पोषण गींगाबाई और मानसा द्वारा ही माना है।
(क) पिता मानसा आप मात गींगा इदकाई।
दीन दयाल कला सवाया सदा संतन सूषदाई।।
(ख) पीता मानसा सही मात गींगा सो कहिए।
इन साक्ष्यों कें आधार पर इस युग में संत दरिया साहब को ‘मानसा’ और ‘गींगाबाई’ की गर्भोत्पन्न सन्तान मानना ही उचित होगा।

दरिया साहब की जाति-

दरिया साहब की जाति के प्रश्न पर भी विद्वानों में मतभेद है।

धुनियाँ मुसलमान होने  पक्ष-

  • आचार्य क्षितिमोहनसेन, डॉ रामकुमार वर्मा, बलदेव वंशी आदि विद्वानों ने अन्तः साक्ष्य के आधार पर इनको धुनियाँ मुसलमान माना है। 
  • पं. परशुराम चतुर्वेदी ने भी -
  • “जो धुनियाँ तो मैं राम तुम्हारा।” के साक्ष्य के आधार पर इन्हें मुसलमान धुनिया माना है।
  • दरिया साहब ने अपनी जाति का उल्लेख करते हुए स्वयं कहा हैः-
                                                    ‘जो धुनिया तो भी मैं राम तुम्हारा।’
  • संत पदुभदास ने इन्हें मुसलमान धुनिया कहा है -
                                         ''मुसलमान कुल रीत जनम धुनिया घर लीना।”
  • संत मदाराम ने भी इनकी जाति ‘धुनिया’ ही बताई है - 
                                      ‘बणसुत को घर वुदम जात धुणिया सो लहियो।’
  • संत उमाराम ने इन्हें ‘मुसलमान’ जाति से सम्बन्धित माना है।                                           
                                ''मुसलमान की जात पीता मानसा होई।”
  • वेलवीडियर प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित ‘दरिया साहब (मारवाड़ के प्रसिद्ध महात्मा) की बानी और जीवन चरित्र, में भी इनकी जाति ‘मुसलमान धुनिया’ ही मानी गई है। 
  • ‘रेण’ में स्थित दरिया साहब का समाधि-स्थल मुस्लिम धर्मावलंबियों के कब्रिस्तान के पास है, यह तथ्य भी मुसलमान होने के पक्ष में जाता है। परन्तु इन सब तथ्यों के बाद भी ऐसे कई तथ्य हैं जो इन्हें मुसलमान न मानने के पक्ष में जाते है।
  • आचार्य क्षितिमोहन सेन, डॉ. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल डॉ. रामकुमार वर्मा, परशुराम चतुर्वेदी, वियोगी हरि, डॉ. विष्णुदत्त राकेश, डॉ. विद्यावती मालविका, डॉ. पेमाराम, डॉ. पूर्णदास, आदि विद्वानों ने इनकी जाति ‘धुनिया मुसलमान’ ही मानी है। 

‘हिन्दू खत्री’ जाति से संबद्ध मानना-

  • पं. मोतीलाल मेनारिया, डॉ. मदनकुमार जॉनी, डॉ. चैतन्य गोपाल निर्भय, डॉ. ओंकारनाथ चतुर्वेदी, संत बलरामदास शास्त्री तथा हरिनारायण शास्त्री इनकी जाति धुनिया मुसलमान न मानकर इन्हें ‘हिन्दू खत्री’ जाति से संबद्ध मानते है। 
  • सेठ फूलचन्द खत्री ने इन्हें ‘खत्री’ कुल में उत्पन्न होना कहा है -
                                               ‘खत्री कुल में प्रगटे तारे जीव अनन्त।'


सन्त दरियावजी ने अपने ग्रन्थों में इस बात का उल्लेख नहीं किया है और न ही इनके समकालीन शिष्यों ने इनको मुसलमान कुलोत्पन्न होना लिखा है।
दरिया साहब एवं उनके शिष्यों की रचना से तथा माता-पिता के नाम से भी ये हिन्दू ही प्रतीत होते है। इनके पुत्रों के नाम क्रमशः कुस्यालीराम, संमन, हंसाराम भी स्पष्टः हिन्दू नाम ही है। दरिया साहब की वाणी में कहीं भी मुस्लिम साधना पद्धति और शब्दावली का प्रयोग नहीं है। इनकी वाणी में हिन्दू धर्म सम्बन्धी पौराणिक कथाओं, भक्तों आदि के प्रति श्रद्धाभाव के दर्शन होते है। जोधपुर के शासकों महाराजा बखतसिंह तथा विजय सिंह के द्वारा न केवल इनकी शिष्यता, स्वीकार की गई अपितु इनके दरबार में दरिया का सत्संग व उपदेश होता रहता था। इनका हिन्दू सम्प्रदाय में काफी मान-सम्मान था। जबकि उस समय की परिस्थितियों में किसी मुसलमान का हिन्दू समाज में इस प्रकार प्रतिष्ठित एवं पूजनीय होना असंभव सी बात थी।

इन बातों को देखते हुए दरिया साहब की जाति के सम्बन्ध में सन्देह करने का स्थान ही नहीं रह जाता। संभवतः दरियाव जी को मुसलमान मानने की भूल सर्वप्रथम सन् 1891 में सेन्सस रिपोर्ट तैयार करने वालों ने की है, जिसको प्रायः सत्य मानकर सभी ने उद्दृत करना प्रारंभ कर दिया है।

समस्त तथ्यों का अवलोकन करने पर प्रतीत होता कि दरिया साहब का जन्म तो हिन्दू माता-पिता के घर हुआ, जिससे इन पर हिन्दू संस्कार पड़े। इनका पालन-पोषण इनके नाना किशन जी के यहाँ हुआ। किशन जी को उस समय मुसलमानों ने बलपूर्वक मुसलमान बना कर इनका नाम ‘कमीश’ रख दिया था। इसी से दरिया साहब को भी भ्रमवश मुसलमान समझ लिया गया। किन्तु इनके मुसलमान होने का भेद तब खुला जब इन्होनें नमाज आदि मुस्लिम साधना पद्धत्ति का अनुसरण न करके संस्कार जनित हिन्दू धर्म के अनुकूल ‘रामनाम’ स्मरण की साधना विधि को स्वीकार किया। इससे दरिया साहब का विरोध भी हुआ था। स्वामी मंगलदास जी ने भी दरियाव जी को हिन्दू माना है। अपने शोध ग्रंथ में डॉ. सतीश कुमार ने भी सभी तथ्यों का अवलोकन करने के पश्चात दरियावजी को हिन्दू ही माना है।


दरिया साहब की शिक्षा-

दरिया साहब की सात वर्ष की आयु में इनके पिता ‘मानसा’ का देहान्त हो जाने पर इनकी माता इन्हें अपने पिता ‘किशनजी’ (कमीस) के यहाँ लालन-पालन हेतु ‘रेण’ (ननिहाल) में लेकर आई थी।
बरस सपत का भया पीता तब धाम सीधाया।
जैतारण सुं चाल हाल रायण में आया।
नानो नाम किशन भाग मौटे अति भारी।
जन दरिया सुं प्रीत, रीत आरत उर धारी।।
कहा जाता है कि जब बालक दरियाव 7-8 वर्ष के थे और अपने ननिहाल ‘रेण’ में निवास करते थे, उस समय काशी के दो पण्डित भी स्वरूपानन्द जी और श्री शिवप्रसाद जी जोधपुर नरेश से मिलने के लिए जा रहे थे, तब वे रेण से होकर गुजरे थे। इन दोनों पण्डितों की दृष्टि अन्य बालकों के साथ खेलते हुए बालक दरियाव पर पड़ी। वे बालक के तेज से प्रभावित हुए। दोनों पण्डित माता गींगाबाई के पास गये और बालक दरियाव को अपने साथ ले जाकर शिक्षित करने की अनुमति मांगी। माता गींगाबाई और नाना किशनजी ने सोच-विचारकर बालक दरियाव को पंडित स्वरूपानन्द जी के साथ शिक्षा के लिए काशी भेज दिया। अल्पकाल में ही बालक दरियाव ने काशीवास के समय व्याकरण, वेद, गीता, उपनिषद्, कुरान, संस्कृत फारसी एवं दर्शन शास्त्रों का अध्ययन कर पुनः रेण लौट आयें।
रामस्नेही सम्प्रदाय ‘रेण’ के धार्मिक साहित्य में इन्हें एक स्वर से न केवल शिक्षित, अपितु वेद-शास्त्र भागवत् गीता, उपनिषद, व्याकरण, कुरान आदि का ज्ञाता कहा गया हैः-
(1) बरस पंचनव दसां बुध चतराई आई।
वाकरण पढ़ी बसेष कोमदी सब नीरताई।।
(2) ग्यान बेद सुकीया बीचारा पुराण अठारा छाया।।
(3) कलमा कुरान किताब पारसी हरफ उचार्या।
हिन्दू मुसलमान ग्यांन दोऊ मत धारूया।।
भागवंत श्री मत पढ़े रामायण गीता।
पढ़े वसिसठ सार, वेद धुन निसदिन करता।।
(4) भागवंत संस्कृत गीता,
बेद धुन निसवासुर करता।
हिन्दगी पारसी न्यारी,
विद्या पढ़ हिरदा में धारी।।
(5) कीताब कुरान और अंजील अगरजी न्यारी।
पढ़ी हींदगी आप उड़ती पढ़ गुरमुषी न्यारी।।
साम्प्रदायिक साहित्य में तो संत दरियावजी को शिक्षित माना है किन्तु कुछ विद्वानों ने इन्हें निरक्षर माना है। कल्याण के ‘सत’ अंक में इन्हे निरक्षर माना है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी इनकी रचनाओं के आधार पर इन्हें अनुभवी और योग्य पुरूष माना है। वियोगी हरि ने इन्हें अनपढ़ मानते हुए इनके अभिव्यक्ति पक्ष की प्रशंसा की है। डॉ. राधिका प्रसाद त्रिपाठी भी इनके कवित्व एवं भाषा की प्रशंसा की है। मदन कुमार जानी, डॉ. पेमाराम, डॉ. मोतीलाल मेनारिया, तथा डॉ. चैतन्य गोपाल निर्भय इन्हें शिक्षित मानते हैं। डॉ. ओंकारनाथ चतुर्वेदी ने सन्त दरियाव जी को हिन्दी, संस्कृत, फारसी का ज्ञाता माना है। बलदेव वंशी ने भी संत दरियाव जी को शिक्षित माना है। डॉ. सोहन कृष्ण पुरोहित ने भी दरियाव जी को फारसी, कुरान के अलावा ज्योतिष, भगवत् गीता, उपनिषद आदि का ज्ञाता माना है।
सम्प्रदायगत साहित्य एवं अन्य विद्वानों के साहित्य में वर्णित प्रमाणों के आधार पर तथा दरियाव साहब की वाणियों में इनके अभिव्यक्ति पक्ष एवं कवित्व को दृष्टिगत रखते हुए यह कहा जा सकता है कि संत दरियावजी न्यूनाधिक शिक्षित अवश्य थे।

दरिया साहब की दीक्षा-

दरिया साहब की दीक्षा के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। काशी में अध्यनोपरांत दरिया साहब रेण आये तब एक दिन नित्य नियमानुसार भागवत गीता और उपनिषदों का अध्ययन (पाठ) कर रहे थे, तभी उनकी दृष्टि ‘गुरु-महिमा’ विषय पर अटकी। जिससे इन्होंने यह महसूस किया कि गुरु के बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती और न ही जीवन का सही लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। फलतः दरिया साहब गुरु के खोज में लग गये। उन्हीं दिनों प्रेमदासजी महाराज वि.सं. 1769 को भिक्षाटन करते हुए दरिया साहब के निवास स्थान रेण पधारे। दरियाव जी ने प्रेमदासजी महाराज को आत्म- निवेदन किया कि वे उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर गुरु-मंत्र प्रदान करें, जिसे प्रेमदास जी महाराज ने स्वीकार कर लिया। वि.सं. 1769 की कार्तिक शुक्ला एकादशी के दिन प्रेमदासजी ने दरियावजी को ‘राम’ नाम का तारक मंत्र प्रदान कर शिष्य बनाया। रामस्नेही सम्प्रदाय के साहित्य ने भी इनकी गुरु-दीक्षा तिथि यही बताई गई है :-
(1) संमंत सतरै भया रया सित्र में ऐका।
मिल्या पेम दरियाव ग्यांन का करण बमेषा।।
(2) तेतीसा को जन्म गुणंत्रै दीक्षा लीनी।
काती सुद ऐकाद सी पेम जी किरण कीनी।।
‘श्री दरियाव साहब की अनुभव गिरा’ ‘श्री दरियाव दर्शन’, ‘श्री रामस्नेही संत वाणी एवं भजन संग्रह’ आदि प्रकाशित साहित्य में भी यही दीक्षा-तिथि उल्लिखित है। डॉ. राधिका प्रसाद त्रिपाठी, डॉ. पेमाराम, ओकारनाथ चतुर्वेदी, सोहन कृष्ण पुरोहित, भी इसी दीक्षा-तिथि से सहमत हैं।
डॉ. सतीश कुमार ने अपने शोधग्रन्थ ‘रामस्नेही संतकाव्यः परम्परा और मूल्याकंन” ने हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहालय, मेड़ता देवल से लगभग 474 पत्रों के जीर्ण-शीर्ण ‘गोटका’ में दरिया साहब रचित पदों में से प्राप्त एक पद में दरिया साहब ने संवत 1765 में दीक्षा ग्रहण करने की बात स्वयं कही है।
“संमत सतरे बेरस पेसटे पेम गुरु जी दीनी।
जन दरीयाव आतूर होके, हात जोड़र लीनी।।''
इस गोटका का लिपिकाल वि.सं. 1967 ठहरता है। इसे दरिया साहब के प्रमुख शिष्य सुखराम के पौत्र शिष्य तथा बड़ा रामद्वारा उज्जैन के प्रतिष्ठापक प्रेमदयाल की शिष्य परम्परा में साधु नानकदास ने ‘सूथरामपुर’ में लिप्यांकित किया था। अगर इस पद की भाषा को देखें तो यह संत दरियाव की भाषा प्रतीत नहीं होती, अतः माना जा सक्ता है कि डॉ. सतीश कुमार ने इस अन्तः साक्ष्य के आधार पर जो दीक्षा तिथि (संवत1765) बताई है उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। अतः दरिया साहब की दीक्षा तिथि विक्रम संवत 1769 ही होनी चाहिए।
गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार दरिया साहब के गुरु प्रेमदास, संतदास के शिष्य बताये गये है। संतदास रामानंद की शिष्य परम्परा में छोटा नारायणदास के शिष्य तथा ‘गूदड़-पंथ’ के प्रवर्तक थे। प्रेमदासजी बीकानेर राज्य में स्थित खिंयासर ग्राम के निवासी थे। प्रेमदास जी गुरु आज्ञा से गृहस्थ जीवन का निर्वाह करते हुए जाटावास में निवास किया। उन्होंने साधना भी जाटावास (मेड़ता परगने) में की। प्रेमदास जी वि.सं. 1809 की फाल्गुन वदी सप्तमी को परमधाम सिधार गये। इनकी समाधी जाटावास व खिंयासर दोनों स्थानों पर है। कुछ विद्वान प्रेमदास (पेमदास) को संतदास का शिष्य न मानकर, संतदास के अन्य शिष्य ‘बालकदास’ का शिष्य तथा संतदास का प्रशिष्य मानते है। इनमें सर्वप्रथम डॉ. राधिका प्रसाद त्रिपाठी ने अपने शोध-ग्रन्थ में प्रेमदास जी को बालकदास का शिष्य बताया है। शोध-पत्रिका ‘परम्परा’ में भी प्रेमदास जी को बालकदास जी नोहर का शिष्य बतलाया गया है। जिनका निराकरण डॉ. सतीश कुमार ने अपने शोध ग्रंथ ‘रामस्नेही संतकाव्यः परम्परा और मूल्यांकन’ में विभिन्न अन्तःसाक्ष्य तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि संतदास के शिष्य प्रेमदास जी थे और प्रेमदास जी के शिष्य दरिया साहब थे। उन्होंने अपने इस मत के समर्थन में किसनदासजी रचित ‘भगतमाल’ प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर, प्रेमदासजी रचित ‘गगरनीसाणी’, संत सुखराम की वाणी एवं दरिया साहब की वाणी के अन्तः साक्ष्यों के आधार पर प्रेमदास को संतदास का शिष्य तथा दरियासाहब को प्रेमदास का शिष्य बताया है, जो सही प्रतीत होता है। बालकादास जी प्रेमदास जी के गुरु भाई थे और संतदास जी के शिष्य थे। बालकदास जी को प्रेमदास जी का गुरु बताना एक दुष्प्रयत्न है जिसका निराकरण डॉ. सतीश कुमार ने अपने शोध-ग्रंथ “रामस्नेही” संतकाव्यः परम्परा एवं मूल्यांकन” में हस्तलिखित अंतः साक्ष्यों के आधार पर प्रमाण सहित कर दिया है। अतः इस सम्बन्ध में संशय के लिए स्थान नहीं है।

दरिया साहब का गृहस्थ जीवन-

रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रकाशित साहित्य ‘श्री रामस्नेही संत वाणी एवं भजन संग्रह तथा ‘रामस्नेही अनुभव आलोक’ में दरिया साहब को आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने वाला बताया है। किन्तु पदुमदास, सुखसारण, साहिब राम तथा उमाराम ने इन्हें गृहस्थ बताया हैः-
(क) कुसालचंद म्हाराज पुत्र दरिया का भारी।
ज्यूं श्रवण नृपराय बड़ा जन अग्याकारी।।
संमन साहा सधीर बड़ा दीरघ गुणवंता।
जनदरिया का पुत्र रामरस पीया अनंता।।
हंसराम नीज हंस भाग जीन ही का मोटा।
पिता दास दरियाव ताहि घर कदे न तोटा।।
तीनुं जन ईदकार दास दरिया का पुत्र।
बड़भागी बड़संत रट्यौ जिन सिव को मंत्र।।
(ख) नाम की प्रतीत हंसा समन कुसालीराम,
बांदर सांईदास मोती रैमत रता राम रे।।
(ग) पुरण बरम परस जन बैठा, गीरह म पुत्र उदासी।
दास षुसाल कर तब सूरत जांन देहेर जासी।।
देष सरूप पुत्र घर आयो, फेर देषीयो धांनां।
वाकी सुरत जीसीह आही, वुही केवल ग्यांनां।।
तथा
जन की सोबत दास, सत सुषरांम पधारे।
दुजा पुत्र कुसाल, चरण बीरंध ही धारे।।
(घ) दरिया सा क पुत्र होइ, कुस्यालदास नांवह सोई।
इनके आधार पर कहा जा सकता है कि संत दरियाव साहब गृहस्थी थे और इनके कुसालचंद, संमन और हंसराम नाम के तीन पुत्र थे। बलदेव वंशी ने भी अपने शोध-ग्रंथ ‘भारतीय संत परम्परा में संत दरियाव को गृहस्थी बताते हुए कहा है कि 
“इनका जन्म का नाम दरियाव था, वही नाम दीक्षा के उपरांत भी प्रसिद्ध हुआ क्योंकि संत परम्परा के अनुसार गृहस्थी व्यक्ति का नाम दीक्षोपरांत भी प्रचलित रहता है, बदला नहीं जाता और दरियाव साहब गृहस्थी थे। इनके तीन पुत्र थे।''
डॉ. वासुदेव सिंह ने अपने शोध-ग्रंथ ”हिन्दी सन्त काव्य समाजशास्त्रीय अध्ययन“ में भी दरिया साहब के गृहस्थ होने का संकेत किया है”।
दरिया साहब ने भगवत् भक्ति के लिए घर-गृहस्थी का त्याग और साधु बनना आवश्यक नहीं माना है। इनकी मान्यता थी कि गृहस्थ हो या साधु निष्कपट भाव से अराधना करने पर भगवान की प्राप्ति हो सकती है।
डॉ. परशुराम चतुर्वेदी और डॉ. राधिका प्रसाद त्रिपाठी दरियाव साहब के गृहस्थी होने के बारे में मौन है।
डॉ. राधिका प्रसाद त्रिपाठी उनके विरक्त होने के बारे में अवश्य लिखा है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि दरियाव साहब पहले गृहस्थ थे और बाद में ये विरक्त हुए। अतः अन्तः साक्ष्य के आधार पर यह माना जा सकता है कि दरियाव साहब गृहस्थ संत थे। गृहस्थी होते हुए भी वे सांसारिकता से विरक्त थे।

दरियाव साहब की साधना-

विक्रम संवत 1769 मे प्रेमदास जी महाराज से गुरुमंत्र प्राप्त कर दरियाव साहब ने ‘रेण’ ग्राम को तपस्थली बनाकर साधना (तपस्या) प्रारंभ की। बाद में दरियाव साहब ने लाखा सागर के उत्तर दिशा में स्थित स्थान पर भी भजन एवं सत्संग किया। इसी स्थान पर अब एकतपो स्मारक (चबूतरा) बना हुआ है। रामस्नेही भक्त वहां जाकर उस तपोधूलि को मस्तक पर लगाकर अपने-आपको धन्य मानते है।
दरिया साहब के परम शिष्य सुखराम (लोहार) प्रतिदिन मेड़ता से रेण गुरु-सत्संग हेतु पैदल चलकर आया करते थे। गुरु भक्ति इनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। गुरु-दर्शन के बिना इन्हें चैन नहीं मिलता था। इसी कारण 12 वर्ष तक बिना किसी बाधा के अपने साधना-स्थल मेड़ता से 10 मील की दूरी पर स्थिति गुरु-धाम ‘रेण’ में नित्यप्रति पैदल आकर गुरु के साथ सत्संग करते थे। इनकी गुरु-भक्ति से प्रसन्न होकर ही दरिया साहब ने अपने परम शिष्य सुखराम के हितार्थ मेड़ता और रेण के मध्य स्थित ‘खेजड़ा’ वृक्ष के नीचे सत्संग करना प्रारंभ कर दिया। यह स्थान आज दरिया साहब की तपोभूमि ‘खेजड़ा’ के नाम से प्रसिद्ध है। अतः साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि दरिया साहब ने साधना (तपस्या) तो रेण स्थित लाखासागर (तालाब) के तट पर ही की ‘खेजड़ा’ में तो वे अपने प्रिय शिष्य के हितार्थ सत्संग चर्चा करते थे। डॉ. राधिका प्रसाद त्रिपाठी ने इनकी साधना स्थल ‘रैण’ को मानते हुए लिखा है कि “दरिया साहब ने मरूधरा के इस रेणुकामय रैण में ज्ञान, भक्ति और योग की ऐसी त्रिवेणी प्रवाहित कर दी कि कुछ लोगों ने “रैण” को ही दरिया का उद्गम मान लिया। इतना ही नहीं दोनों का ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो गया है कि रैण दरिया की रेणु बन गये और दरिया साहब बन गये उस मरूभूमि के दरियाव।”

जोधपुर के राजा बखतसिंह और विजयसिंह द्वारा शिष्यत्व ग्रहण करना :-

दरिया साहब सच्चे साधक और महात्मा थे। इनकी साधना और अलौकिक व्यक्तित्व की प्रशंसा सुनकर तत्कालीन मारवाड़ नरेश महाराज बखतसिंह, जो त्रिविध ताप रूपी असाध्य रोग से पीड़ित थे, इनकी शरण में आये और नीरोग करने हेतु प्रार्थना की थी। तब संत दरियाव ने अपने शिष्य सुखराम जी को महाराजा बखतसिंह को उपदेश देने हेतु कहा। संत दरियाव साहब की कृपा से महाराजा बखतसिंह रोग मुक्त हुए। रोग मुक्त होने के बाद जोधपुर नरेश रेण जाकर संत दरियाव के दर्शन कर उनके शिष्य बन गये। महाराजा बखत सिंह के बाद में जोधपुर के राजा विजय सिंह हुए। उन्होंने भी संत दरियाव साहब का शिष्यत्व ग्रहण किया और संत दरियाव के अनुरोध पर प्रजा की लाग-बाग (कर) बन्द कर दिये, जिससे जनता को अपार सुख की प्राप्ति हुई।
तब राजा बिजैपाल, भेंट पूजा विसतारी।
लाग बाग सब माफ, सब माफ, सही कर दीनी सारी।।

संत दरियाव साहब का व्यक्तित्व  :-

संत दरियाव साहब के उल्लिखित चमत्कार पूर्ण घटनाओं से उनके व्यक्तित्व पर तो प्रकाश पड़ता ही है साथ ही उनके इन चमत्कार पूर्ण कार्यों के कारण ही भक्तजन उन्हें ईश्वर रूप भी मानते है। संत दरियाव साहब के उक्त चमत्कारिक कार्यों के अलावा श्री रामरतन जी कृत वाणी ‘दरियाव महाप्रभु का प्रादुर्भाव प्रसंग,’ संन्त जयरामदासजी कृत ‘श्री दरियाव जी महाराज की लावणी’ तथा सन्त आत्माराम जी कृत ‘श्री दरियावजी महाप्रभु की लावणी’ ऐसी रचनाएं है जिनमें महाराज दरियाव के लोक कल्याणकारी अनेक कार्यों का वर्णन किया गया है। सन्त दरियाव के शिष्य नानकदास जी ने उनकी महिमा की कृतज्ञता प्रकट करने के लिए कहा हैः-
दाता गुरु दरियाव सही, गुरुदेव हमारा।।
राम राम सुमिराय, पतित को पार उतारा।।
राम नाम सुमिरण दिया, दिया भक्ति हरिभाव।
आठ पहर बिसरो मती, यूं कहे गुरु दरियाव।।
संत दरियाव जी अपने समय के सर्वश्रेष्ठ उच्चकोटि के ध्यान योगी सन्त थे। अपने शरण में आये हुए भक्त की इच्छाओं को वे पूर्ण करते थे। भक्तों के असम्भव कार्यां को पूर्ण करने के बाद भी उनके चरित्र में आत्मश्लाघा एवं अहंभाव नाम मात्र को भी नहीं था। वे अपने कार्यों का श्रेय ईश्वर की कृपा मानते थे। संत दरियाव परोपकारी, सभी जीवों पर दयाभाव रखने वाले, अहिंसक संकटग्रस्त मनुष्यों की सहायता व उद्धार करने वाले, छुवाछूत को न मानने वाले, नारी को जगत जननी रूपा मानने वाले थे।
संत दरिया साहब जहां धार्मिक क्षेत्र में आडम्बर, दिखावा और मूर्ति पूजा के विरोधी थे, वहीं वे कबीर और दादू की तरह सामाजिक सुधारों के समर्थक भी थे। संत दरिया समाज निर्माण में जाति, वर्ण तथा वर्गभेद रहित समाज की रचना के पक्षधर थे। उन्होंने व्यक्ति के वैयक्ति आचरण की शुद्धता पर जोर दिया।
संत दरियाव साहब के समकालीन संत गृहस्थ छोड़कर संन्यास ग्रहण करने की शिक्षा दे रहे थे, तब उन्होंने कहा कि यदि परमात्मा का ही स्मरण करना है तो वह गृहस्थ में रहकर के भी किया जा सकता हैं।
संत दरियाव समाज की रचना में नारी की भूमिका महत्वपूर्ण मानते है। उन्होंने अन्य सन्तों की भाँति स्त्री जाति की निन्दा नहीं की है। उनका कहना है कि नारी सारे संसार की जननी है, पालन पोषण करती है। मूर्ख मनुष्य राम को भूलकर दोष नारी को ही देता है।
संत दरियाव जी ने अन्य निर्गुण सन्तों की तरह अफीम आदि नशीले पदार्थों के सेवन को दुर्गण माना। उन्होंने कहा -
दरिया अमल है। आसुरी, पीयां होत शैतान।
राम रसायण जो पिवे, सदा छाक गलतान।।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि संत दरिया साहब धार्मिक एवं सामाजिक सुधार के हित चिन्तक थे। उन्होंने कहा कि परमब्रह्म राम की उपासना हेतु मूर्ति-पूजा, आडम्बर, व्रत, तीर्थ, कंठी, माला तिलक और सम्प्रदायवाद की कोई आवश्यकता नहीं है। वे अल्लाह और ईश्वर के भेद को काल्पनिक मानते थे। उनके द्वारा प्रचारित धर्म जन साधारण का धर्म था, जो उपनिषदों और पुराणों के अध्यात्मवाद से कोसों दूर था। सामाजिक चिन्तन में उन्होंने जाति भेद को मान्यता न देकर मनुष्य के व्यक्तिगत आचारण में सुधार पर जोर दिया। वे छुवाछूत, सन्यासधारण, नारी आलोचना और दुर्व्यसनों के विरोधी थे। इसलिए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संत दरिया साहब के विचार सार्थक प्रतीत होते हैं।
‘आत्मराम सकल घट भीतर’ इन शब्दों को पढ़कर संत दरियाव को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने सोचा कि कलियुग में वाणियों का सम्मान नहीं होगा, उन्होंने वाणी पत्रों को जल में विसर्जित कर दिया। कहा जाता है कि संत दरियाव साहब से द्वेष रखने के कारण फतेहराम प्रेत योनी को प्राप्त हुआ। बाद में उसने प्रेत योनी से मुक्ति के लिए संत दरियाव के समक्ष जाकर, प्रार्थना की। संत दरियाव की कृपा प्राप्त कर फतेहराम को मोक्ष की प्राप्ति हुई। कर्म, भक्ति एवं ज्ञान योग से पूर्ण, जीवनदर्शन की अभूतपूर्व निधि के इस प्रकार समाप्त होने से जो क्षति हुई वह कभी पूरी नहीं हो सकती। संत दरियाव के शिष्यों ने उनसे कहा कि इन वाणियों के अभाव में हमारा मार्ग दर्शन कौन करेगा? तब संत दरियाव साहब ने कहा -
“सकल ग्रंथ का अर्थ हैं, सकल बात की बात।
दरिया सुमरिन राम को, कर लीजै दिन रात।।
उक्त वाणी से सम्बन्धित कहानी कितनी सत्य है? कुछ कहा नहीं जा सकता दरिया साहब द्वारा अपनी ‘वाणी’ को जल में विसर्जित करने का कारण बताते हुए डॉ. पूर्णदास ने लिखा है। “संभवतः कारण यह था कि अब दरिया उस असामान्य आध्यात्मिक भूमि को स्पर्श कर चुके थे, जहां ‘कविता’ की यशः कामना का प्रवेश वर्जित है। दूसरे, उनके सामनें ही कबीर व दादू आदि निर्गुण संतों की वाणियों ने पूजा का रूप धारण कर लिया था। जिससे उसका मूल उद्देश्य ही अलग-थलग पड़ गया था। तीसरे, दरिया उस ब्रह्म की ज्योति का साक्षात्कार कर चुके थे जिसके दर्शन के पश्चात कथनी व करनी झूठी लगती है, धुआं जैसी प्रतीत होने लगती है। भला, ज्योति प्रज्वलित होने के बाद धुएँ से क्या प्रयोजन।  संत दरिया साहब रचित कोई स्वंतत्र ग्रंथ नहीं मिला है। इनकी केवल अंगबद्ध वाणी ही प्राप्त है जो संख्या में बहुत कम है। कहते हैं इन्होंने वाणी नामक एक बहुत बड़ा ग्रंथ लिखा था, जिसमें 10000 के लगभग पद-दोहे आदि थे, किन्तु अब इसका कोई पता नहीं चलता है। संत दरियाव की जो वाणियां आज उपलब्ध हैं वो इनके शिष्यों को परम्परागत रूप में कंठस्थ थी। वही लिखित रूप में प्रकट हुई। इनकी वाणी का सर्व प्रथम बेलवीडियर प्रेस इलाहाबाद से “दरिया साहब (मारवाड़ वाले) की बानी और जीवन-चरित्र“ नामक पुस्तक रूप में प्रकाशन हुआ था। जिसमें इनकी अंगबद्ध वाणी, कुछ पद तथा एक रेखता संकलित है। तत्पश्चात् इनकी वाणी ‘श्री स्व. दरिया महाराज की अनुभव गिरा’ में प्रकाशित हुई जिसमें इनका ‘गुरु-महिमा’ नामक ग्रंथ भी इनकी नयी रचना के रूप में प्रकाश में आया। जिसका रचना काल संवत 1790 विक्रम तथा रचना स्थान ‘रेण’ में स्थित ‘रामसागर’ है।
संवत 17 साल में वर्ष 90 वे जाण।
रामसागर की तीर, महिमा करी बखणा।।
संत दरियाव की वाणी ‘श्री रामस्नेही संत वाणी एवं भजन संग्रह ‘श्री रामस्नेही अनुभव आलोक’, ‘रामस्नेही अनुभव वाणी’, ‘श्री दरियाव दिव्य वाणी’, श्री मद दरियाव गीता, आदि सम्प्रदायरत पुस्तकों में प्रकाशित हो चुकी है। डॉ. सतीश कुमार ने अपने शोध ग्रंथ ‘रामस्नेही संत काव्यः परम्परा और मूल्यांकन’ में हस्तलिखित ग्रंथ संग्रहालय, मेड़ता देवल के गं्रथाक (5), में संत दरियाव द्वारा रचित दो ग्रंथों क्रमशः ‘भगतमाल’ तथा ‘ब्रह्मध्यान’ के अतिरिक्त 73 नये पद और 21 कुंडलिया प्राप्त होने का उल्लेख किया है। उन्होंने अपने ग्रंथ में ‘भगतमाल’ के प्रारंभ, मध्यभाग और अंतिम भाग के पदों का उल्लेख किया है। इन उद्धरणों से डॉ. सतीश कुमार ने सिद्ध किया है कि ‘भगतमाल’ की रचना दरियाव साहब ने संवत 1800 से पूर्व ‘कुचेरा’ नामक स्थान पर की थी। ग्रंथ ‘भगतमाल’ के बाद ही ग्रंथ ‘ब्रह्मध्यान’ लिखा गया है। किन्तु इसमें रचनाकाल, स्थान आदि का उल्लेख नहीं मिलता है।
संत दरियाव की वाणियों में साखियां एंव पद इस प्रकार से हैं - सतगुरु का अंग, सुमरिन का अंग, विरह का अंग सुरातन का अंग, नाद परचे का अंग, ब्रह्म परचे का अंग, हंस उदास का अंग, सुपने का अंग राग भैरव, साध का अंग, चिन्तामणि का अंग, अपारख का अंग, उपदेश का अंग, पारस का अंग, चेतावणी का अंग, साच का अंग, नाम महातम का अंग, मिश्रित साखी का अंग, आदि पदों में - आदि अनादि मेरा सांई, जो सुमिरूं तो पूरणराम, जाके डर उपजी नहीं भाई, जो धुनियातो भी, आदि अन्त मेरा है राम, पतिव्रता पति मिली, चल चल वे हंसा चल सूवा तेरे, नाम बिन भाव करम, दुनियां भरम भूल बौराई, मैं तोहि कैसे बिसरूं, जीव बटाऊ रे बहता, है कोई सन्त राम अनुरागी, साधो राम अनुपम बानी, साधो ऐसी खेती करई, बाबल कैसे बिसरा जाई, साधों मेरे सतगुरु, साधो एक अचम्भा दीठा, अब मेरे सतगुरु करी, मुरली कौन बजावै हो, कहा कहूं मेरे पिउ की बात, ऐेसे साधु करम दहै, राम भरोसा राखिये, साहब मेरे राम है, अमृत नीका कहै सब, साधो अरट बहै, साधो अलख निरंजन, सन्तों क्या गृहस्थ त्यागी, संतगरू से शब्द ले आदि वाणियाँ विभिन्न सम्प्रदाय गत ग्रंथों में उल्लिखित है। संत दरियाव ने अपनी वाणियों में अहिंसा, ब्रह्मचर्य, शुद्ध आचरण, अक्रोध, दुष्ट संगत्याग, सर्व दुर्व्यसन त्याग, निर्गुणराम, आत्मानुसंधान, सुरत शब्द योग, गमना गमन, लोकों से परे केवल ब्रह्म आदि का उपदेश दिया करते थे, जिससे हजारों नर-नारियों का कल्याण हुआ।
संत दरियाव अपनी वाणियों से जाति-पांति का भेदभाव मिटाकर समन्वय का उपदेश देते थे। सांसारिक माया जाल से पीड़ित मनुष्यों को ‘राम’ नाम सुमिरण का उपदेश दिया। उनके प्रभाव से हिन्दु-मुस्लिम, जैन सभी उनके शिष्य बने और सभी ने ‘आत्माराम सकल घट भीतर’ को अपनाया।

Source- shodhganga

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