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Saccharum munja- कैसे करें उपयोगी मूंजा घास की खेती-

मुंजा एक बहुवर्षीय घास है, जो गन्ना प्रजाति की होती है। यह ग्रेमिनी कुल की सदस्य है। इसका वैज्ञानिक नाम सेक्करम मूंज (Saccharum munja) है। मूंज को रामशर भी कहते हैं। यह  घास  भारत,  पाकिस्तान  एवं अपफगानिस्तान के सूखा प्रभावित क्षेत्रों में पायी जाती है। इसका प्रसारण जड़ों एवं सकर्स द्वारा होता है। यह वर्ष भर हरी-भरी रहती है। इसके पौधों की लम्बाई 5 मीटर तक होती है। यह एक खरपतवार है, जो खेतों में पाया जाता है। बारानी एवं मरूस्थलीय प्रदेशों में इसका उपयोग मृदा कटाव व अपक्षरण रोकने में बहुत सहायक होता है। यह एक बहुवर्षीय पौधा है। इसके पौधे एक बार जड़ पकड़ लेने के बाद लगभग 25-30 वर्ष तक नहीं मरते हैं। अधिकतर अकृषि योग्य भूमि जहां कोई फसल व पौधा नहीं पनपता, वहां पर यह खरपतवार आसानी से विकसित हो जाती है। यह नदियों के किनारे, सड़कों, हाईवे,  रेलवे लाइनों और तालाबों के पास, चरागाहों, गोचर, ओरण आदि के आसपास जहाँ खाली जगह हो वहां पर स्वतः प्राकृतिक रूप से उग जाती है।
इसकी पत्तियां बहुत तीक्ष्ण होती हैं। इसकी पत्तियों से हाथ या शरीर का कोई भाग लग जाए तो वह जगह कट सकती है और खून निकल सकता है। इसकी इस विशेषता के कारण इसको अपने खेत के चारों ओर मेड़ों पर लगाया जाता हैं, जिससे जानवरों से फसल को सुरक्षा मिलती है। इसके पौधे, पत्तियां, जड़ व तने सभी औषधीय या अन्य विभिन्न कार्यों जैसे  गाय  व  भैंस को हरे चारे के रूप में, पत्तियों  की  कुट्टी  करके  पशुओं  को खिलाने में, रस्सी बनाने में, मूंज फर्नीचर बनाने में उपयोग में लाए जाते हैं।

कैसे करें मूंज की खेती

यह पादप ढलानदार, रेतीली, नालों के किनारे व हल्की मिट्टी वाले क्षेत्रों में आसानी से उगाया जा सकता है। यह मुख्यतः जड़ों द्वारा रोपित किया जाता है। एक मुख्य पौधे (मदर प्लांट) से तैयार होने वाली 25 से 40 छोटी जड़ों द्वारा इसे लगाया जाता है। जुलाई में जब पौधों से नए सर्कस निकलने लगें तब उन्हें मेड़ों, टिब्बों और ढलान वाले क्षेत्रों में रोपित करना चाहिए। नई जड़ों से पौधे दो महीने में पूर्ण तैयार हो जाते हैं। इनको 30×30×30 सें.मी. आकार के गड्ढों में 75×60 सें.मी. की दूरी पर लगाना चाहिए। इसकी 30,000 से 35,000 जडे़ं या सकर्स प्रति हैक्टर लगाई जा सकती हैं। पहाड़ों और रेतीले टिब्बों पर ढलान की ओर इसकी फसल लेने पर मृदा कटाव रुक जाता है। जब पौधे खेत में लगा देते हैं तो उसके दो महीने बाद पशुओं से बचाना चाहिए। सूखे क्षेत्रों में लगाने के तुरंत बाद  पानी  अवश्य  देना  चाहिए।  इससे  पौधे हरे व स्वस्थ रहते हैं तथा जड़ों का विकास अच्छी तरह से होता है। पौधे की जड़ों के लिए पानी का जमाव हानिकारक होता है तथा जड़ों का विकास कम हो जाता है। इसकी खेती सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए काफी उपयोगी हो सकती है। पहली बार लगभग 12 महीने के बाद मुंजा को जड़ों से 30 से.मी. ऊपर से काटना चाहिए। इससे दुबारा  फुटान  अधिक  होती  है।  यदि  देखा जाये तो एक पूर्ण विकसित पौधे से जड़ों का गुच्छा  बन  जाता  है।  इससे  लगभग  30-50 कल्लों (सरकंडों) का गुच्छा बन जाता है,  जो 30 से 35 वर्षों तक उत्पादन देता रहता है। पूर्ण विकसित मुंजा के गुच्छे से प्रतिवर्ष कटाई करते रहना चाहिए। इससे मिलने वाले उत्पादों से अधिक लाभ कमाया जा सकता है। इसे बाजार में 4-5 रुपये प्रति कि.ग्रा. की दर से ताजा भी बेचा जा सकता है। मुंजा को रासायनिक खाद की आवश्यकता नहीं पड़ती फिर भी यदि आवश्यकता हो तो 15-20 टन प्रति हैक्टर देशी खाद डालनी चाहिए। इसकी औसत पैदावार 350-400 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त की जा सकती है।

मुंजा के विभिन्न उपयोग-

मुंजा एक  लाभदायक  खरपतवार  है। मुंजा को ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी बहुत  अधिक  प्रयोग  में लाया  जाता  है।
  • मुंजा की रस्सियों से चारपाई बनायी जाती है। पशुओं के पैर में हड्डियां टूट जाने पर इसके सरकंडों को मुंजा की रस्सी से चारों तरफ बांधने पर आराम मिलता है। 
  • लू से बचाव के लिए पशुओं व मनुष्यों के लिए इसके छप्पर बनाए जाते हैं।
  • मुंजा  को  घरेलू  जरूरत  की  वस्तुएं  बनाने  में  अधिक  प्रयोग  में  लाया  जाता  है जैसे- चारपाई, बीज साफ करने के लिये छाज, रस्सी, बच्चों का झूला, छप्पर, बैठने का मुड्डा आदि सजावटी सामान आदि।
  • रेगिस्तानी क्षेत्र जहां पर रेतीली मृदा हो, उन क्षेत्रों में हवा द्वारा मृदा कटाव एक बड़ी समस्या है। ऐसे स्थानों पर मुंजा मृदा कटाव को 75 प्रतिशत तक कम करता है।
  • बड़े-बड़े  खेतों  के  चारों  ओर  मेड़ों  पर  मुंजा लगाने से बाहरी तेज व गर्म हवाओं से फसल को लू के प्रकोप से बचाया जा सकता है।
  • गर्मी में खीरावर्गीय सब्जियों की रोपाई के बाद तेज धूप से बचाव के लिये मुंजा के सरकंडों का प्रयोग छाया के लिए किया जाता है। इससे लू का प्रकोप लताओं पर नहीं पड़ता तथा लताएं स्वस्थ रहती हैं।
  • गांव में गर्मी के मौसम में जब काम नहीं हो, उस समय मुंजा के कल्लों से मूंज निकालकर उसकी रस्सी व कई प्रकार की घरेलू आवश्यकता वाली वस्तुएं बनायी जाती हैं।
  • इसके सरकंडों का प्रयोग छप्पर बनाने में किया जाता है। बड़े-बड़े राष्ट्रीय मार्गों पर होटलों एवं रेस्तरां में विभिन्न प्रकार के आकर्षक छप्पर बनाने में भी इसका प्रयोग किया जाता है। यह गर्मी में बहुत ठण्डी रहती है।
  • ग्रामीण महिलाएं इसकी फूल वाली डण्डी से विभिन्न प्रकार की आकर्षक वस्तुएं जैसे-छबड़ी, चटाई, पंखी, ईण्डी का घेरा आदि बनाती हैं।
  • सरकंडों का प्रयोग ज्यादातर पौधशाला एवं वर्मीकम्पोस्ट बनाने वाली इकाइयों को छायादार बनाने में किया जाता है।
  • मुंजा का प्रयोग ग्रीसिंग पेपर बनाने में किया जाता है।
  • इसकी जड़ों के पास से निकली नई सकर्स का उपयोग चावल के साथ उबालकर खाने में किया जाता है।
  • कम वर्षा वाले क्षेत्रों में इसके सरकंडों से चारा संग्रहण के लिये एक गोल आकार की संरचना बनाकर किसान सूखे चारे व बीजों को स्टोर करते हैं, जो 10-12 वर्षों तक खराब नहीं होता है।
  • यह पशुओं के लिए बिछावन बनाने में काम आता है।
  • इसकी राख से कीटनाशक जैविक उत्पाद बनाया जाता है।

मूंजा की कटाई एवं उपज-

मुंजा की कटाई प्रतिवर्ष अक्टूबर से नवंबर में करनी चाहिए। कटाई उस समय उचित मानी जाती है, जब इसकी ऊंचाई 10  से  12  फीट  हो  जाए तथा  पत्तियां सूखने  लगे  व  पीले  रंग  में  परिवर्तित  हो जाएं। कटाई के बाद सरकंडों को सूखने के लिये 5-8 दिनों तक खेत में इकट्ठा करके  फूल  वाला  भाग  ऊपर  तथा  जड़ वाला भाग नीचे करके खेत में मेड़ों के पास  खड़ा  करके  सुखाना  चाहिए।  सूखने के बाद कल्लों से फूल वाला भाग अलग कर लेना चाहिए और बाजार में बेचने के लिये भेजना चाहिए। सूखे हुए सरकंडों से पत्तियां, कल्ले और फूल वाला भाग अलग कर लेना चाहिए। इस प्रकार प्रति हैक्टर 350-400  क्विंटल  उपज  प्राप्त  की  जा सकती है। एक अनुमान के अनुसार इससे प्रति हैक्टर औसतन 85,000 से 100,000 रुपये आय प्राप्त की जा सकती है।

स्रोत- कृषि विज्ञान केन्द्र, काजरी, पाली-मारवाड़ (राजस्थान)

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