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Inscriptions to know the History of Rajasthanराजस्थान का इतिहास जानने का साधन शिलालेख






राजस्थान का इतिहास जानने का साधन शिलालेख -

पुरातत्व स्रोतों के अंतर्गत अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोत अभिलेख हैं। इसका मुख्य कारण उनका तिथियुक्त एवं समसामयिक होना है। ये साधारणतः पाषाण पट्टिकाओं, स्तंभों, शिलाओं ताम्रपत्रों, मूर्तियों आदि पर खुदे हुए मिलते हैं। इनमें वंशावली, तिथियों, विजयों, दान, उपाधियों, नागरिकों द्वारा किए गए निर्माण कार्यों, वीर पुरुषों का योगदान, सतियों की महिमा आदि की मिलती है। प्रारंभिक शिलालेखों की भाषा संस्कृत है जबकि मध्यकालीन शिलालेखों की भाषा संस्कृत, फारसी, उर्दू, राजस्थानी आदि है। जिन शिलालेखों में किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा होती है, उसे ‘प्रशस्ति’ भी कहते हैं। महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित कीर्ति स्तम्भ की प्रशस्ति तथा महाराणा राजसिंह की राज प्रशस्ति विशेष महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। शिलालेखों में वर्णित घटनाओं के आधार पर हमें तिथिक्रम निर्धारित करने में सहायता मिलती है। बहुत से  शिलालेख राजस्थान के विभिन्न शासकों और दिल्ली के सुलतान तथा मुगल सम्राट के राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संबंधों पर प्रकाश डालते हैं। शिलालेखों की जानकारी सामान्यतः विश्वसनीय होती है परंतु यदा-कदा उनमें अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी पाया जाता है, जिनकी पुष्टि अन्य साधनों से करना आवश्यक हो जाता है। यहाँ  राजस्थान के कुछ चुने हुए प्रमुख शिलालेखों का वर्णन आगे किया गया है। आशा है ये आपके लिए उपयोगी होगा-


संस्कृत शिलालेख (Sanskrit Inskripts)



घोसुण्डी शिलालेख (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व)  -



यह लेख कई शिलाखण्डों में टूटा हुआ है। इसके कुछ टुकड़े ही उपलब्ध हो सके हैं। इसमें एक बड़ा खण्ड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है। यह लेख घोसुण्डी गाँव (नगरी, चितौड) से प्राप्त हुआ था। इस लेख में प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है। प्रस्तुत लेख में संकर्शण और वासुदेव के पूजागृह के चारों ओर पत्थर की चारदीवारी बनाने और गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख है। इस लेख का महत्त्व द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में भागवत धर्म का प्रचार, संकर्शण तथा वासुदेव की मान्यता और अश्वमेघ यज्ञ के प्रचलन आदि में है।



मानमोरी अभिलेख (713 ई.) -


यह लेख चित्तौड़ के पास मानसरोवर झील के तट से कर्नल टॉड को मिला था। चित्तौड़ की प्राचीन स्थिति एवं मोरी वंश के इतिहास के लिए यह अभिलेख उपयोगी है। इस लेख से यह भी ज्ञात होता है कि धार्मिक भावना से अनुप्राणित होकर मानसरोवर झील का निर्माण करवाया गया था।



सारणेश्वर प्रशस्ति (953 ई.) -


उदयपुर के श्मशान के सारणेश्वर नामक शिवालय पर स्थित इस प्रशस्ति से वराह मंदिर की व्यवस्था, स्थानीय व्यापार, कर, शासकीय पदाधिकारियों आदि के विषय में पता चलता है। गोपीनाथ शर्मा की मान्यता है कि मूलतः यह प्रशस्ति उदयपुर के आहड़ गाँव के किसी वराह मंदिर में लगी होगी। बाद में इसे वहाँ से हटाकर वर्तमान सारणेश्वर मंदिर के निर्माण के समय में सभा मंडप के छबने के काम में ले ली हो। यह प्रशस्ति मेवाड़ के इतिहास को जानने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस प्रशस्ति में मेवाड़ के राजा अल्लट का समय निश्चित होता है।

बिजौलिया अभिलेख (1170 ई.) -




यह लेख बिजौलिया कस्बे के पार्श्वनाथ मंदिर परिसर की एक बड़ी चट्टान पर उत्कीर्ण है। लेख संस्कृत भाषा में है और इसमें 93 पद्य हैं। यह अभिलेख चौहानों का इतिहास जानने का महत्त्वपूर्ण साधन है। इस अभिलेख में उल्लेखित 'विप्र: श्रीवत्सगोत्रेभूत' के आधार पर डॉ. दशरथ शर्मा ने चौहानों को वत्स गोत्र का ब्राह्मण कहा है। इस अभिलेख से तत्कालीन कृषि धर्म तथा शिक्षा सम्बन्धी व्यवस्था पर भी प्रकाश पड़ता है। लेख के द्वारा हमें कई स्थानों के प्राचीन नामों की जानकारी मिलती है जैसे-जाबालिपुर (जालौर), शाकम्भरी (सांभर), श्रीमाल (भीनमाल), नड्डूल (नाडोल), दिल्लिका (दिल्ली), मंडलकर (मांडलगढ़), विंध्यवल्ली (बिजोलिया), नागहृद( नागदा) आदि।
इसके अनुसार चौहानों के आदि पुरुष वासुदेव चौहान ने 551 ईस्वी में शाकंभरी में चौहान राज्य की स्थापना की थी तथा सांभर झील का निर्माण करवाया उसने अहिछत्रपुर को अपनी राजधानी बनाया। बिजोलिया के आसपास के पठारी भाग को उत्तमाद्री के नाम से संबोधित किया गया  जिसे वर्तमान में उपरमाल के नाम से जाना जाता है ।



चीरवे का शिलालेख (1273 ई.) -




चीरवा (उदयपुर) गाँव के एक मंदिर से प्राप्त संस्कृत में 51 श्लोक के इस शिलालेख से मेवाड के प्रारम्भिक गुहिलवशं के शासकों, चीरवा गाँव की स्थिति, विष्णु मंदिर की  स्थापना शिव मंदिर के लिए भूमिदान आदि का ज्ञान होता है। इस लेख द्वारा हमे प्रशस्तिकार रत्नप्रभसूरी, लेखक पार्श्वचन्द्र तथा शिल्पी देलहण का बोध होता है जो उस युग के साहित्यकार तथा कलाकारों की परंपरा में थे। लेख से गोचर भूमि, पाशुपत शैव धर्म आदि पर प्रकाश पडता है।


रणकपुर प्रशस्ति (1439 ई.)-




रणकपुर के जैन चौमुखा मंदिर से लगे इस प्रशस्ति में मेवाड़ के शासक बापा से कुम्भा तक वंशावली है। इसमें महाराणा कुम्भा की विजयों का वर्णन है। इस लेख में नाणक शब्द का प्रयोग मुद्रा के लिए किया गया है । स्थानीय भाषा में आज भी नाणा शब्द मुद्रा के लिए प्रयुक्त होता है। इस प्रशस्ति में मंदिर के सूत्रधार दीपा का उल्लेख है।



कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति (1460 ई.) -




संभवतः चितौडगढ़ के कीर्ति स्तम्भ की अंतिम मंजिल की ताकों पर लगाई गई थी। किन्तु अब केवल दो शिलाएँ ही उपलब्ध हैं, जिन पर प्रशस्ति है। हो सकता है कि कीर्ति स्तम्भ पर पडने वाली बिजली के कारण ये शिलाएँ टूट गयी हों। वर्तमान में 1 से 28 तथा 162 से 187 श्लोक ही उपलब्ध हैं। इनमें बापा, हम्मीर, कुम्भा आदि शासकों का वर्णन विस्तार से मिलता है। इससे कुम्भा के व्यक्तिगत गुणों पर प्रकाश पडता है और उसे दानगुरु, शैलगुरु आदि विरुदों से संबोधित किया गया है। इससे हमें कुंभा द्वारा रचित ग्रंथों का ज्ञान होता है जिनमें चंडीशतक, गीतगोविन्द की टीका, संगीतराज आदि मुख्य है। कुम्भा द्वारा मालवा और गुजरात की सम्मिलित सेनाओं को हराना प्रशस्ति 179 वें श्लोक में वर्णित है। इस प्रशस्ति के रचियता अत्रि और महेश थे।



रायसिंह की प्रशस्ति (1594 ई.)-




बीकानेर दुर्ग के द्वार के एक पार्श्व में लगी यह प्रशस्ति बीकानेर नरेश रायसिंह के समय की है। इस प्रशस्ति में बीकानेर के संस्थापक राव बीका से रायसिंह तक के बीकानेर के शासकों की उपलब्धियों का जिक्र है। इस प्रशस्ति से रायसिंह की मुगलों की सेवा के अंतर्गत प्राप्त उपलब्धियों पर प्रकाश पडता है। इसमें उसकी काबुल, सिंध, कच्छ पर विजयों का वर्णन किया गया है। इस प्रशस्ति से गढ़ निर्माण के कार्य के संपादन का ज्ञान होता है। इस प्रशस्ति में रायसिंह के धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का उल्लेख है। इस प्रशस्ति का रचयिता जाता नामक एक जैन मुनि था। यह संस्कृत भाषा में है।



आमेर का लेख (1612 ई.)-




आमेर के कछवाह वंश के इतिहास के निर्माण में यह लेख महत्त्वपूर्ण है। इसमें कछवाह शासकों को रघुवंशतिलक कहा गया है। इसमें पृथ्वीराज, भारमल, भगवंतदास और मानसिंह का उल्लेख है। इस लेख में मानसिंह को भगवंतदास का पुत्र बताया गया है। मानसिंह द्वारा जमुआ रामगढ़ के दुर्ग के निर्माण का उल्लेख है। लेख संस्कृत एवं नागरी लिपि में है।



जगन्नाथराय का शिलालेख (1652 ई.)-



उदयपुर के जगन्नाथराय मंदिर के सभा मंडप के प्रवेश द्वार पर यह शिलालेख उत्कीर्ण है। यह शिलालेख मेवाड के इतिहास के लिए उपयोगी है। इसमें बापा से महाराणा जगतसिंह तक के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख है। इसमें हल्दीघाटी युद्ध, महाराणा जगतसिंह के समय में उसके द्वारा किये जाने वाले दान-पुण्य का वर्णन आदि किया गया है। इसका रचयिता तैलंग ब्राह्मण कृष्णभट्ट तथा मंदिर का सूत्रधार भाणा तथा उसका पुत्र मुकुन्द था।



राजप्रशस्ति (1676 ई)-


उदयपुर संभाग के राजनगर में राजसमुद्र (राजसमंद) की नौचौकी नामक बाँध पर सीढ़ियों के पास वाली ताको पर 25 बड़ी शिलाओं पर उत्कीर्ण ‘राजप्रशस्ति महाकाव्य’ देश का सबसे बड़ा शिलालेख है। इसकी रचना बाँध तैयार होने के समय रायसिंह (राजसिंह) के काल में हुई। इसका रचनाकार रणछोड़ भट्ट था। यह प्रशस्ति संस्कृत भाषा में है, परंतु अंत में कुछ पंक्तियाँ हिंदी भाषा में है। इसमे तालाब के काम के लिए नियुक्त निरीक्षकों एवं मुख्य शिल्पियों के नाम है। इसमे तिथियों तथा ऐतिहासिक घटनाओं का सटीक वर्णन है। इसमें वर्णित मेवाड़ के प्रारम्भिक में उल्लेखित है कि राजसमुद्र के बाँध को बनवाने के कार्य अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए किया गया था। महाराणा राजसिंह की उपलब्धियों की जानकारी के लिए यह प्रशस्ति अत्यंत उपयोगी है। इस प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि राजसमुद्र तालाब की प्रतिष्ठा के अवसर पर 46,000 ब्राह्मण तथा अन्य लोग आए थे। तालाब बनवाने में महाराणा ने 1,05,07,608 रुपये व्यय किए थे। यह प्रशस्ति 17वीं शताब्दी के मेवाड़ के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए उपयोगी है।

अन्य महत्वपूर्ण शिलालेख-

बैराठ (विराट नगर, जयपुर) के शिलालेख -

यहाँ विराट की पहाड़ी पर मौर्य सम्राट अशोक के 2 अभिलेख (भाब्रू शिलालेख और भीमजी डूंगरी बैराठ अभिलेख) मिले हैं। प्रथम अभिलेख जयपुर के निकट स्थित विराट नगर की भाब्रू पहाड़ी पर मिला है। यह शिलालेख पाली व बाह्मी लिपि में लिखा हुआ था। इस शिलालेख को ब्रिटिश सेनाधिकारी कैप्टन बर्ट ने 1837 में खोजा था तथा कालांतर में सुरक्षा की दृष्टि 1840 ई. में कैप्टन बर्ट द्वारा कटवा कर कलकत्ता के संग्रहालय में स्थानांतरित कर दिया। इस अभिलेख में सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म एवं संघ में आस्था प्रकट की गई है।  इस अभिलेख से अशोक का बुद्ध धर्म का अनुयायी होना सिद्ध होता है इसे मौर्य सम्राट अशोक ने स्वयं उत्कीर्ण करवाया था। चीनी यात्री हेनसांग ने भी इस स्थल का वर्णन किया है। 
दूसरा अस्पष्ट शिलालेख बैराठ से डेढ़ किलोमीटर उत्तर-पूर्व में भीमजी की डूंगरी में मिला था। यह शिलालेख रूपनाथ (सासाराम, बिहार) स्थित शिलालेख का बैराठ संस्करण कहा जाता है। इसका पता 1871-72 में कार्लाइल ने लगाया था। खुदा हुआ खंड 25 फुट ऊँचा व 24 फुट चौड़ा है। इस अभिलेख में लिखा है कि अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के अधिक प्रयत्न नहीं किया। संघ में प्रवेश करने के एक वर्ष बाद धर्म का प्रचार करना प्रारंभ किया था। शिरोरेखाविहीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण एवं पाली भाषा में लिखित इस अभिलेख में आठ पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं।

गंगधार का शिलालेख (424 ई.)-

झालावाड जिले में गंगधार से 424 ई. का शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसमें विश्वकर्मा के मंत्री मयूराक्षी द्वारा विष्णु मंदिर के निर्माण का तथा इस मंदिर में तांत्रिक शैली के मातृग्रह के निर्माण का उल्लेख प्राप्त होता है। साथ इसमें 5 वीं शताब्दी की सामंत व्यवस्था की भी जानकारी मिलती है। इस लेख में गौर वंश एवं ओलिकार वंश के शासकों का उल्लेख है।

भंवर माता का शिलालेख (490 ई.)-

चित्तौड़गढ़ जिले के छोटी सादड़ी के भँवर माता मंदिर से प्राप्त 490 ई. के इस शिलालेख से 5 शताब्दी की राजनीतिक स्थिति और प्रारंभिक कालीन सामंत प्रथा के संबंध में जानकारी मिलती है। इस प्रशस्ति का रचनाकार मित्रसोम का पुत्र बह्मसोम तथा उत्कीर्णकर्ता पूर्वा था।

सांमोली का शिलालेख (696 ई.) -

मेवाड़ के राजा शिलादित्य के काल का 696 ई. का एक शिलालेख उदयपुर जिले के सांमोली ग्राम से प्राप्त हुआ है जो मेवाड़ के गुहिल वंश के समय को निश्चित करने तथा उस समय की आर्थिक व साहित्यिक स्थिति को जानने का अति महत्वपूर्ण साधन है। यह शिलालेख वर्तमान में अजमेर के पुरातत्व संग्रहालय में रखा है।

आदि वराह मंदिर का शिलालेख (944 ई.) -

उदयपुर जिले के आहाड़ में गंगोद्भव कुंड के आदिवराह मंदिर से 944 ईसवी का संस्कृत भाषा का यह अभिलेख प्राप्त हुआ है, जो मेवाड़ के शासक भृतहरि द्वितीय के समय का है। इसके अनुसार आहाड़ में आदि वराह मंदिर का निर्माण आदि वराह नामक व्यक्ति द्वारा करवाया गया था। इस अभिलेख में गंगोद्भव अर्थात गंगा के अवतरण का भी उल्लेख है। 

प्रतापगढ़ का अभिलेख (946 ई.) -

यह लेख प्रतापगढ़ नगर में चेनराम अग्रवाल की बावड़ी के निकट से 946 ई. में प्राप्त हुआ है। इसमें गुर्जर प्रतिहार नरेश महेंद्रपाल की उपलब्धियों, 10वीं सदी के ग्रामीण जनजीवन और सामंती प्रथा के बारे में  वर्णन किया गया है। इसमें प्रतिहार वंश के अन्य शासकों रामभद्र भोज और महेंद्र देव आदि का उल्लेख मिलता है।  इससे तत्कालीन समाज, कृषि एवं धर्म आदि की जानकारी मिलती है।

ओसिया का शिलालेख-

956 ई. के इस शिलालेख से यह जानकारी मिलती है कि तत्कालीन समाज चार प्रमुख वर्णन ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित था।

आहाड़ का शक्ति कुमार का शिलालेख (977 ई.) -

आहाड़ से 977 ई. के शक्ति कुमार के शिलालेख में मेवाड़ के गुहिल से लेकर शक्ति कुमार तक की वंशावली मिलती है। इससे प्रमाणित होता है कि अल्लट की रानी हरिया देवी हूण राजा की पुत्री थी। 


पाणाहेड़ा का शिलालेख (1059 ई.) -   

बांसवाड़ा जिले के पाणाहेड़ा के मंडलेश्वर के शिव मंदिर से 1059 ई. का एक लेख मिला है।  इससे जानकारी मिलती है कि मंडलीक (मंडनदेव) ने वि.सं. 1166 में अपने नाम से मंडलेश्वर के शिव मंदिर का निर्माण कराया था।  इससे मालवा और वागड के परमारों के वंश क्रम की जानकारी मिलती है। इस अभिलेख से मालवा के मुंज, सिन्धुराज व भोज के अलावा धनिक से मंडलित तक की जानकारी प्राप्त होती है।

नाडोल शिलालेख -

पाली जिले के नाडोल के सोमेश्वर मंदिर में स्थापित 12 वीं सदी (1141 ई.) के इस अभिलेख में तत्कालीन राजस्थान की प्रशासनिक व स्थानीय शासन व्यवस्था का की जानकारी मिलती है, जिससे पता चलता है कि चोरी और डकैती का पता लगाने का उत्तरदायित्व ग्राम प्रमुखों का होता था। इसके अनुसार भाट लोग घोड़े द्वारा व बंजारे बैलों द्वारा परिवहन व व्यापार करते थेइस अभिलेख में बोलचाल के शब्दों को संस्कृत रूप में प्रस्तुत किया गया है। 

नान्देशमा का शिलालेख -

उदयपुर जिले की गोगुन्दा तहसील के के नान्देशमा गांव के टूटे हुए सूर्य मंदिर के स्तंभ से 1222 ई. का यह शिलालेख मिला था, इसमें जेत्रसिंह की राजधानी के रूप में नागदा का वर्णन है,जिससे यह सिद्ध होता है कि 1222 ई. तक नागदा का विध्वंस नहीं हुआ था।

बिठू का शिलालेख -

पाली जिले के बिठू गांव के 1273 ई. के इस शिलालेख से मारवाड़ के राठौड़ आदि पुरुष राव सिंहा की मृत्यु की तिथि निश्चित होती है। इसमें इस स्थान पर उसकी पत्नी पार्वती द्वारा स्मारक के रुप में देवली स्थापित किए जाने का उल्लेख है।

रसिया की छतरी का शिलालेख (1274 ई.)

इस शिलालेख की चित्तौड़ के पीछे के द्वार पर लगी हुई एक शिला ही बची है। इसमें बप्पा से नरवर्मा तक गुहिल वंशीय मेवाड़ शासकों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। इस शिलालेख के कुछ अंश 13 वीं सदी के जनजीवन पर प्रकाश डालते है। इसमें नागदा और देलवाड़ा के गांवों का वर्णन मिलता है। इस लेख में रानियों के श्रृंगार, वनवासियों के जीवन चरित्र के साथ तत्कालीन समाज में प्रचलित दास प्रथा और अस्पृश्यता का भी वर्णन मिलता है। इस शिलालेख से आदिवासियों के आभूषण वैदिक यज्ञ परंपरा और शिक्षा के स्तर की समुचित का वर्णन है।

आबू का (अचलेश्वर महादेव) शिलालेख -

इस अभिलेख का काल 1285 का है तथा इसमें 62 श्लोक हैं। यह अभिलेख आबू के अचलेश्वर महादेव मंदिर के पास के मठ से प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख की रचना चित्तौड़ निवासी वेद शर्मा ने की थी। इसमें बप्पा रावल से समरसिंह तक के मेवाड़ के शासकों का वर्णन है। इसके अनुसार समरसिंह ने मठाधीश भावशंकर की आज्ञा से उक्त मठ का जीर्णोद्धार करवाया और तपस्वी की भोजन व्यवस्था की थी। मेवाड़ (मेटपाद) का वर्णन करते हुए इसमें लिखा गया है कि बापा द्वारा मेटपाद में यहां दुर्जनों का संहार किया गया तथा उनकी चर्बी से यहां की भूमि गीली हो जाने से इसे मेटपाद कहा गया। इसमें हारित ऋषि के द्वारा नागदा में तपस्या करने तथा तदुपरांत बप्पा को राज्य प्राप्त करने का वर्णन भी है। इसमें परमार वंशी राजाओं की उपलब्धियों के साथ साथ वास्तुपाल व तेजपाल के वंशो का उल्लेख मिलता है।

माउंट आबू के नेमिनाथ मंदिर की प्रशस्ति-

माउंट आबू में वि.सं. 1287 (1230 ई.) में नेमिनाथ की प्रशस्ति मंदिर के निर्माता तेजपाल द्वारा लगवाई गई थी। इससे ज्ञात होता है कि मंदिर का निर्माण मंत्री वास्तुपाल के छोटे भाई तेजपाल ने अपनी पत्नीे अनुपमा  देवी के श्रेय के लिए करवाया था। इन मंदिरों की प्रतिष्ठा मुनि विजयसेन सूरी ने की थी। इस लेख से आबू के परमार शासकों वास्तुपाल और तेजपाल के वंश का वर्णन भी प्राप्त होता है।  इससे परमार वंशीय राजाओं की उपलब्धियों का वर्नण मिलता है।

दरीबा का शिलालेख -

राजसमन्द जिले के दरीबा गांव के मातृकाओं के मंदिर के स्तम्भ के 1302 ई. के इस शिलालेख से रतन सिंह के समय की जानकारी मिलती है, जो रतन सिंह की ऐतिहासिकता सिद्ध करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। 

माचेड़ी की बावड़ी का शिलालेख -

अलवर जिले के माचेड़ी के 1382 ई. के इस शिलालेख में बडगूजर शब्द का प्रथम प्रयोग मिलता है। 

श्रृंगी ऋषि का शिलालेख (1428 ई.)-

काले पत्थर पर उत्कीर्ण यह शिलालेख उदयपुर जिले के एकलिंग जी मंदिर से लगभग 6 मील दूर दक्षिण पूर्व में श्रृंगी ऋषि नामक स्थान पर है। इसका काल विक्रमी संवत 1485 श्रावण शुक्ला 5 (1428 ई.) का है। इस शिलालेख के 3 टुकड़े हो जाने के कारण क्षत-विक्षत होने के बावजूद यह शिलालेख तत्कालीन इतिहास जानने के स्रोत की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। 30 श्लोक के इस शिलालेख की भाषा संस्कृत है। इन श्लोकों की रचना कविराज वाणी विलास योगेश्वर द्वारा की गई मानी जाती है और इसे हादा के पुत्र फना ने पत्थर पर उत्कीर्ण किया था। यह मोकल के काल का है, जिसने अपने धर्मगुरु की आज्ञा से अपनी पत्नी गोरांबिका की मुक्ति के लिए श्रृंगी ऋषि के पवित्र स्थान पर एक कुंड बनवाया।
इस शिलालेख का प्रारंभ विद्या देवी की स्तुति से किया गया है। बाद में हम्मीर, क्षेत्रसिह व मोकल की उपलब्धियों तथा हम्मीर की विजय यात्रा के वर्णन के साथ-साथ लाखा के पुत्र मोकल ने नागौर के प्रशासक फिरोज खाँ और गुजरात के प्रशासक अहमद खाँ के साथ युद्ध का वर्णन है। इस अभिलेख से मेवाड़ व गुजरात और मेवाड़ व मालवा के राजनीतिक संबंधों की जानकारी प्राप्त होती है। इसमें भीलों के सामाजिक जीवन पर वर्णन किया गया है तथा इससे यह विदित होता है कि हम्मीर ने भीलों से सफलतापूर्वक युद्ध किया और अपने शत्रु राजा जैत्र को पराजित किया था। इसमें लक्ष्मण सिंह तथा क्षेत्रसिंह की काशी, प्रयाग और गया की यात्रा का उल्लेख किया गया है, जहां उन्होंने बहुत सारा धन दान किया था। इसमें यह जानकारी है कि लाखा ने काशी, प्रयाग व गया तीर्थ स्थलों पर हिंदुओं से लिए जाने वाले करों को हटवाया था। उसने गया जी में मंदिर का निर्माण भी करवाया था।

कुंभलगढ़ का शिलालेख (1460 ई.) -

यह शिलालेख कुम्भलगढ़ (राजसमंद) दुर्ग के कुंभश्याम के मंदिर (इसे वर्तमान में मामदेव का मन्दिर कहते हैं) में प्राप्त हुआ है। डॉ. ओझा के अनुसार इस लेख का रचनाकार महेश होना चाहिए, क्योंकि इस लेख के कई साक्ष्य चित्तौड़ की प्रशस्ति से मिलते हैं। यह मेवाड़ के महाराणाओं की वंशावली रूप से जानने का महत्वपूर्ण साधन है। इसमें मेवाड़ के गुहिल वंश का वर्णन हैं। यह राजस्थान का एकमात्र अभिलेख हैं जो महाराणा कुंभा के लेखन पर प्रकाश डालता है। इस लेख में हम्मीर को विषम घाटी पंचानन कहा गया है। इसमें कुल 5 शिलालेखों का वर्णन मिलता है।  इस शिलालेख में 2709 श्लोक हैं। दासता, आश्रम व्यवस्था, यज्ञ, तपस्या, शिक्षा आदि अनेक विषयों का उल्लेख इस शिलालेख में मिलता है।

घोसुंडी की बावड़ी का शिलालेख -


घोसुंडी की बावड़ी के 1504 ई. के इस अभिलेख (महेश द्वारा रचित) में महाराणा रायमल की रानी श्रृंगार देवी द्वारा इस बावड़ी के निर्माण का वर्णन है। श्रृंगार देवी मारवाड़ के राजा राव जोधा की पुत्री थी।


खजूरी शिलालेख (1506 ई.)-  

कोटा जिले के खजूरी गांव से प्राप्त महाराज सूरजमल के समय के इस शिलालेख (1506 ई.) में बूंदी के हाडा राजाओंं के इतिहास की जानकारी मिलती है। इसमें बूंदी के वृंदावनी नाम का उल्लेख है।

बैराठ के जैन मंदिर का शिलालेख (1509 ई.) -

बैराठ के जैन मंदिर से 1509 ई. के इस अभिलेख में अकबर को एक महान शासक व विजेता बताकर उल्लेख किया है कि अकबर ने मुनि हीर विजय सूरि को अकबर ने जगत गुरु की उपाधि प्रदान की थी तथा मुनि हीरविजय सूरि के उपदेश के फलस्वरूप अपने राज्य में वर्ष भर में 106 दिन जीव हत्या का निषेध करवा दिया था।

सारण का शिलालेख-

सोजत के समीप सारण नामक स्थान का लेख 1580 ईस्वी का है। यह वही स्थान है जहां राव चंद्रसेन का दाह संस्कार किया गया था। इस स्थान पर घोड़े पर सवार राव चंद्रसेन की प्रतिमा बनी हुई है।

जमवारामगढ़ का शिलालेख -

जयपुर के जमवारामगढ़ के 1613 ई. के इस शिलालेख से पता चलता है कि जयपुर का राजा मानसिंह अपने पिता भगवान दास का दत्तक पुत्र था।

जगन्नाथ कछवाहा की छतरी का शिलालेख (1613 ई.) -

भीलवाड़ा जिले में मांडलगढ़ से 32 खंभो की जगन्नाथ कछवाहा की छतरी है, जिसे सिंहेश्वर महादेव के मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इसमें मेवाड़ आक्रमण से लौटते समय आमेर के राजा भारमल के पुत्र व भगवानदास के भाई जगन्नाथ कछवाहा की मृत्यु का विवरण है। 

पाशुपत प्रशस्ति -

एकलिंगजी में प्रकाशानंद की समाधि पर लगी हुई 1651 ई. की इस प्रशस्ति में लकुलीश संप्रदाय की एकलिंग जी के मठ के आचार्य की परंपरा तथा आचार्य के नाम का उल्लेख मिलता है  

उदयपुर का दक्षिणामूर्ति शिलालेख -

उदयपुर के राज प्रासाद के दक्षिण में स्थित राजराजेश्वर के शिव मंदिर में लगा हुआ यह 1713 ई. का शिलालेख  महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के काल का है। दक्षिणामूर्ति नामक विद्वान महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के गुरु थे। इस लेख से उस समय के विद्या के स्तर की जानकारी प्राप्त होती है। 

बेणेश्वर के विष्णु मंदिर की प्रशस्ति -

1561 ई. की इस प्रशस्ति में महाराजा आसकरण की माता सज्जना बाई द्वारा डूंगरपुर में बेणेश्वर के मंदिर के पास विष्णु मंदिर के निर्माण का विवरण है

बेणेश्वर का शिलालेख -

डूंगरपुर जिले में स्थित महारावल आसकरण के समय के बेणेश्वर धाम के प्रसिद्ध शिव मंदिर के संबंध में बांसवाड़ा व डूंगरपुर राज्य के मध्य विवाद था। विवाद सुलझने पर अंत में इस मंदिर को डूंगरपुर राज्य की सीमा में माना गया, जिसकी जानकारी 30 जनवरी 1866 के इस शिलालेख में दी गई है

प्राचीन यूप स्तम्भ लेख - 

नांदसा यूप स्तम्भ लेख

यह अभिलेख भीलवाड़ा जिले मे भीलवाड़ा से 60 किमी दूर नांदसा गाॅव में एक तालाब में 12 फीट ऊॅचा और साढ़े पांच फीट गोलाई मेँ एक गोल स्तम्भ के रूप उत्कीर्ण है। इस लेख को केवल तालाब का पानी सूखने के बाद पढ़ा जा सकता है। इस लेख की स्थापना श्रीसोम द्वारा की गई थी। संवत 282 (225 ई.) के इस स्तम्भ पर एक छह पंक्तियों का लेख ऊपर से नीचे तथा दूसरा 11 पंक्तियों का लेख उसके चारों और उत्कीर्ण है।  इसमें लिखा है कि इक्ष्वाकु कुल जैसे प्रख्यात मानव कुल में उत्पन्न जयसोम के पुत्र श्रीसोम के कार्यों द्वारा देश में स्वतंत्रता एवं समृद्धि का पुनरागमन हुआ है (यह मालव जाति के पुनः विस्तार से संबंधित है)। इस लेख से ज्ञात होता है कि क्षत्रियों के राज्य विस्तार हेतु श्रीसोम द्वारा यहाँ षष्ठिरात्र यज्ञ संपादित किया गया। यज्ञ का अभिप्रायः संभवतः पश्चिम भारत के शकों पर मालव जाति की विजय से है। उत्तरी भारत मेँ प्रचलित पौराणिक यज्ञों के बारे में जानकारी नांदसा यूप स्तम्भ लेख से मिलती है। 

बर्नाला यूप- स्तंभलेख (227 ई.)


जयपुर राज्य के अंतर्गत बर्नाला नामक स्थान दो यूप-स्तंभ प्राप्त हुए हैं, जिन्हें आमेर संग्रहालय में सुरक्षित रख दिया गया है। चैत्र शुक्ल पूर्णिमा 284 कृत संवत (227 ई.) का प्रथम यूप-स्तंभ के अनुसार संवत 284 में सोहर्न गोत्रोत्पन वर्धन नामक व्यक्ति ने सात यूप-स्तम्भों की प्रतिष्ठा कर पुन्य अर्जित किया था। संवत 335 (278 ई.) के अन्य यूपलेख में भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए गर्ग-त्रिरात्रि का आयोजन का उल्लेख मिलता है। 

बड़वा यूप स्तम्भ लेख

बाराँ जिले के बड़वा नामक स्थान से चार यूप स्तम्भ मिले हैं जो वर्तमान में कोटा म्यूजियम में सुरक्षित है। बड़वा यूप स्तम्भ लेख की भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी उतरी है बड़वा यूप मौखरी वंश से संबंधित है। मौखरी राजाओं की कई शाखाएं थी। ये अभिलेख मौखरी राजाओं का सबसे पुराने और पहले अभिलेख है। इस अभिलेख में कृत संवत का उल्लेख किया गया है जिस में कहा गया है कि कृत युग के 295 वर्ष व्यतीत होने पर मौखरी शासकों ने यज्ञ किए थे। इनमें से 238-239 ई. के तीन यूप स्तंभों में मौखरी राजा के सेनापति के तीन पुत्रों बलवर्धन, सोमदेव तथा बलसिंह द्वारा त्रिरात्रि यज्ञों का आयोजन किया था। उनमें से प्रत्येक द्वारा 100 गाएं उपहार में दिए जाने का उल्लेख है। बड़वा यूप का प्रमुख व्यक्ति बल था, जो अन्य शाखाओं से अधिक पुरानी शाखा से संबंध रखता है।  
बिना तिथि के चौथे यूप स्तम्भ में मौखरी धनुत्राता द्वारा अष्टोयाम यज्ञ को संपादित किए जाने तथा यूप की स्थापना करने का उल्लेख मिलता है।

विजयगढ़ बयाना यूप स्तम्भ -

भरतपुर के बयाना के विजयगढ़ में यूप स्तम्भ मिला है जिसमें यशोवर्मन के पुत्र विष्णुवर्धन द्वारा मालव युग में संवत 428 (371 ई.) द्वारा पुंडरिक यज्ञ करने का उल्लेख है।  इस यज्ञ के बाद इस यूप को स्थापित किया गया था।

बिचपुरिया मंदिर का यूप स्तम्भ- 


टौंक जिले की उनियारा तहसील के बिचपुरिया मंदिर का यह अभिलेख एक यज्ञ स्तंभ है, जो मालव गणराज्य द्वारा ईसा पश्चात तीसरी शताब्दी के दौरान अनुष्ठानों के पुनरुद्धार के उपलक्ष्य में स्थापित किया गया था। शिलालेख में धारक के पुत्र अहिसर्मन द्वारा यूप स्तम्भ का निर्माण किया गया, जो (अहिसर्मन) अग्निहोत्री था। ऐसा प्रतीत होता है कि अहिसर्मन मालव गणराज्य प्रमुख था।


फारसी शिलालेख -




भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना के पश्चात् फारसी भाषा के लेख भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। ये लेख मस्जिदों, दरगाहों, कब्रों, सरायों, तालाबों के घाटों, पत्थर आदि पर उत्कीर्ण करके लगाए गए थे। राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास के निर्माण में इन लेखों से महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। इनके माध्यम से हम राजपूत शासकों और दिल्ली के सुलतान तथा मुगल शासकों के मध्य लड़े गए युद्धों, राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों पर समय-समय पर होने वाले मुस्लिम आक्रमण, राजनीतिक संबंधों आदि का मूल्यांकन कर सकते हैं। इस प्रकार के लेख सांभर, नागौर, मेड़ता, जालौर, सांचोर, जयपुर, अलवर, टोंक, कोटा आदि क्षेत्रों में अधिक पाए गए हैं।
फारसी भाषा में लिखा सबसे पुराना लेख अजमेर के ढ़ाई दिन के झोंपड़े के गुम्बज की दीवार के पीछे लगा हुआ मिला है। यह लेख 1200 ई. का है और इसमें उन व्यक्तियों के नामों का उल्लेख है जिनके निर्देशन में संस्कृत पाठशाला तोड़कर मस्जिद का निर्माण करवाया गया। चित्तौड़ की गैबी पीर की दरगाह से 1325 ई. का फारसी लेख मिला है जिससे ज्ञात होता है कि अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का नाम खिज्राबाद कर दिया था। जालौर और नागौर से जो फारसी लेख में मिले हैं, उनसे इस क्षेत्र पर लम्बे समय तक मुस्लिम प्रभुत्व की जानकारी मिलती है। पुष्कर के जहाँगीर महल के लेख (1615 ई.) से राणा अमरसिंह पर जहाँगीर की विजय की जानकारी मिलती है। इस घटना की पुष्टि 1637 ई. के शाहजहानी मस्जिद, अजमेर के लेख से भी होती है। शाहजहानी दरवाजा दरगाह अजमेर के लेख 1654 ई. से शाहजहाँ द्वारा मूर्ति पूजा के अंधकार को समाप्त करना लिखा है जो उसके धर्मांध होने का आभास कराता है। 1679 ई. के कोटा जिले के शाहाबाद लेख से औरंगजेब द्वारा वसूल किये जाने वाले करों की जानकारी मिलती है। 1813 ई. के अजमेर के तारागढ़ की सैयद हुसैन की दरगाह से राव गुमान जी सिंधिया द्वारा इस भवन के दालान निर्माण की जानकारी मिलती है।


स्रोत- राजस्थान का इतिहास (प्रारंभ से 1206 . तक) वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा



Comments

  1. शिलालेख शंकर गट्टा चित्तौड़गढ़ ki history kha he

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  2. जगन्नाथराय का शिलालेख (1652 ई.)-



    हल्दीघाटी युद्ध, महाराणा जगतसिंह के समय में उसके द्वारा किये जाने वाले दान-पुण्य का वर्णन आदि किया गया है।

    हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ था? प्रशस्ति लिखने के बाद??

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  3. जगन्नाथराय का शिलालेख (1652 ई.)-



    हल्दीघाटी युद्ध, महाराणा जगतसिंह के समय में उसके द्वारा किये जाने वाले दान-पुण्य का वर्णन आदि किया गया है।

    हल्दीघाटी का युद्ध कब हुआ था? प्रशस्ति लिखने के बाद??

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  4. गुर्जर प्रतिहार फोर फादर ऑफ़ राजपूत

    कर्नल जेम्स टोड कहते है राजपूताना कहलाने वाले इस विशाल रेतीले प्रदेश राजस्थान में, पुराने जमाने में राजपूत जाति का कोई चिन्ह नहीं मिलता परंतु मुझे सिंह समान गर्जने वाले गुर्जरों के शिलालेख मिलते हैं।

    पं बालकृष्ण गौड लिखते है जिसको कहते है रजपूति इतिहास तेरहवीं सदी से पहले इसकी कही जिक्र तक नही है और कोई एक भी ऐसा शिलालेख दिखादो जिसमे रजपूत शब्द का नाम तक भी लिखा हो। लेकिन गुर्जर शब्द की भरमार है, अनेक शिलालेख तामपत्र है, अपार लेख है, काव्य, साहित्य, भग्न खन्डहरो मे गुर्जर संसकृति के सार गुंजते है ।अत: गुर्जर इतिहास को राजपूत इतिहास बनाने की ढेरो सफल-नाकाम कोशिशे कि गई।

    इतिहासकार सर एथेलस्टेन बैनेस ने गुर्जर को सिसोदियास, चौहान, परमार, परिहार, चालुक्य और राजपूत के पूर्वज  थे।

    लेखक के एम मुंशी ने कहा परमार,तोमर चौहान और सोलंकी शाही गुज्जर वंश के थे।

    स्मिथ ने कहा गुर्जर वंश, जिसने उत्तरी भारत में बड़े साम्राज्य पर शासन किया, और शिलालेख में "गुर्जर-प्रतिहार" के रूप में उल्लेख किया गया है, गुर्जरा जाति का था।

    डॉ के। जमानदास यह भी कहते हैं कि प्रतिहार वंश गुर्जरों से निकला है, और यह "एक मजबूत धारणा उठाता है कि अन्य राजपूत समूह भी गुर्जरा के वंशज हैं।

    डॉ० आर० भण्डारकर प्रतिहारों व अन्य अग्निवंशीय राजपूतों की गुर्जरों से उत्पत्ति मानते हैं।
    जैकेसन ने गुर्जरों से अग्निवंशी राजपूतों की उत्पत्ति बतलाई है
    राजपूत गुर्जर साम्राज्य के सामंत थे गुर्जर-साम्राज्य के पतन के बाद इन लोगों ने स्वतंत्र राज्य स्थापित किए

    (गुर्जर वंश के शिलालेख)👇👇👇👇
    नीलकुण्ड, राधनपुर, देवली तथा करडाह शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है ।राजजर शिलालेख" में वर्णित "गुर्जारा प्रतिहारवन" वाक्यांश से। यह ज्ञात है कि प्रतिहार गुर्जरा वंश से संबंधित थे।

    ब्रोच ताम्रपत्र 978 ई० गुर्जर कबीला(जाति)
    का सप्त सेंधव अभिलेख हैं

    पाल वंशी,राष्ट्रकूट या अरब यात्रियों के रिकॉर्ड ने प्रतिहार शब्द इस्तेमाल नहीं किया बल्कि गुर्जरेश्वर ,गुर्जरराज,आदि गुरजरों परिवारों की पहचान करते हैं।

    बादामी के चालुक्य नरेश पुलकेशियन द्वितीय के एहोल अभिलेख में गुर्जर जाति का उल्लेख आभिलेखिक रूप से हुआ है।
    राजोरगढ़ (अलवर जिला) के मथनदेव के अभिलेख (959 ईस्वी ) में स्पष्ट किया गया है की प्रतिहार वंशी गुर्जर जाती के लोग थे

    नागबट्टा के चाचा दड्डा प्रथम को शिलालेख में "गुर्जरा-नृपाती-वाम्सा" कहा जाता है, यह साबित करता है कि नागभट्ट एक गुर्जरा था, क्योंकि वाम्सा स्पष्ट रूप से परिवार का तात्पर्य है।
    महिपाला,विशाल साम्राज्य पर शासन कर रहा था, को पंप द्वारा "गुर्जरा राजा" कहा जाता है। एक सम्राट को केवल एक छोटे से क्षेत्र के राजा क्यों कहा जाना चाहिए, यह अधिक समझ में आता है कि इस शब्द ने अपने परिवार को दर्शाया।

    भडोच के गुर्जरों के विषय दक्षिणी गुजरात से प्राप्त नौ तत्कालीन ताम्रपत्रो में उन्होंने खुद को गुर्जर नृपति वंश का होना बताया

    प्राचीन भारत के की प्रख्यात पुस्तक ब्रह्मस्फुत सिद्धांत के अनुसार 628 ई. में श्री चप
    (चपराना/चावडा) वंश का व्याघ्रमुख नामक गुर्जर राजा भीनमाल में शासन कर रहा था

    9वीं शताब्दी में परमार जगददेव के जैनद शिलालेख में कहा है कि गुर्जरा योद्धाओं की पत्नियों ने अपनी सैन्य जीत के
    परिणामस्वरूप अर्बुडा की गुफाओं में आँसू बहाए।

    । मार्कंदई पुराण,स्कंध पुराण में पंच द्रविडो में गुर्जरो जनजाति का उल्लेख है।

    के.एम.पन्निकर ने"सर्वे ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री "में लिखा है गुर्जरो ने चीनी साम्राज्य फारस के शहंसाह,मंगोल ,तुर्की,रोम ,मुगल और अरबों को खलीफाओं की आंधी को देश में घुसने से रोका और प्रतिहार (रक्षक)की उपाधि पायी,सुलेमान ने गुर्जरो को ईसलाम का बड़ा दुश्मन बताया था।

    लाल कोट किला का निर्माण गुर्जर तनवार प्रमुख अंंगपाल प्रथम द्वारा 731 के आसपास किया गया था जिसने अपनी राजधानी को कन्नौज से लाल कोट में स्थानांतरित कर दिया था।
    इतिहासकार डॉ ऑगस्टस होर्नले का मानना ​​है कि तोमर गुर्जरा (या गुज्जर) के शासक वंश में से एक थे।

    लेखक अब्दुल मलिक,जनरल सर कनिंघम के अनुसार, कानाउज के शासकों गुजर जाती
    (गुजर पी -213 का इतिहास) 218)। उनका गोत्रा ​​तोमर था

    गुर्जर साम्राज्य अनेक भागों में विभक्त हो गया ।इनमें से मुख्य भागों के नाम थे:

    शाकम्भरी (सांभर) के चाहमान (चौहान)
    दिल्ली के तौमर
    मंडोर के गुर्जर प्रतिहार
    बुन्देलखण्ड के कलचुरि
    मालवा के परमार
    मेदपाट (मेवाड़) के गुहिल
    महोवा-कालिजंर के चन्देल
    सौराष्ट्र के चालुक्य

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