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Showing posts with the label राजस्थान का इतिहास

राजपूताना मध्य भारत सभा -

राजपूताना मध्य भारत सभा - इस सभा का कार्यालय अजमेर में था। इसकी स्थापना 1918 ई. को दिल्ली कांग्रेस अधिवेशन के समय चाँदनी चौक के मारवाड़ी पुस्तकालय में की गई थी। यही इसका पहला अधिवेशन कहलाता है। इसका प्रथम अधिवेशन महामहोपाध्याय पंडित गिरधर शर्मा की अध्यक्षता में आयोजित किया गया था। इस संस्था का मुख्यालय कानपुर रखा गया, जो उत्तरी भारत में मारवाड़ी पूंजीपतियों और मजदूरों का सबसे बड़ा केन्द्र था।  देशी राज्यों की प्रजा का यह प्रथम राजनैतिक संगठन था। इसकी स्थापना में प्रमुख योगदान गणेश शंकर विद्यार्थी, विजयसिंह पथिक, जमनालाल बजाज, चांदकरण शारदा, गिरधर शर्मा, स्वामी नरसिंह देव सरस्वती आदि के प्रयत्नों का था।  राजपूताना मध्य भारत सभा का अध्यक्ष सेठ जमनालाल बजाज को तथा उपाध्यक्ष गणेश शंकर विद्यार्थी को बनाया गया। इस संस्था के माध्यम से जनता को जागीरदारी शोषण से मुक्ति दिलाने, रियासतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना करने तथा जनता में राजनैतिक जागृति लाने का प्रयास किया गया।  इस कार्य में संस्था के साप्ताहिक समाचार पत्र ''राजस्थान केसरी'' व सक्रिय कार्यकर्ताओं

Nagri Chittoregarh (Madhymika an Ancient City) नगरी चित्तौड़गढ़ (मध्यमिका एक प्राचीन नगर)

 Ancient city - Madhymika or Nagri प्राचीन नगर मध्यमिका या नगरी चित्तौड़ के किले से 7-8 मील उत्तर में नगरी नाम का एक प्राचीन स्थान है। नगरी का प्राचीन नाम 'मध्यमिका' था। इस नगरी के पश्चिम में बेड़च नदी बहती है। इसकी सर्वप्रथम खोज 1872 ई. में कार्लाइल द्वारा की गयी थी। इतिहासविद डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू के अनुसार यही वह क्षेत्र था जहां चांदी की उपलब्‍धता को देखकर यवनों की सेना ने सेनापति अपोलोडोटस के नेतृत्‍व में हमला किया। स्‍वयं पतंजलि ने उस घेरे को देखा और अपने 'महाभाष्‍य' में उसका जिक्र किया है- ‘अरूणात् यवना: साकेतम्, अरूणात यवनों मध्यमिकाम्’। विभिन्न शिलालेखों में मध्यमिका का उल्लेख प्राप्त होता है। ह्वेनसांग ने इस इलाके का, खासकर यहां की उपज-निपज का वर्णन किया है। महाभारत के सभापर्व में मध्यमिका पर नकुल की दिग्विजय यात्रा के सन्दर्भ वर्णन मिलता है, जिसमें माध्यमिका को जनपद की संज्ञा दी गई है-  'तथा मध्यमिकायांश्चैव वाटधानान् द्विजानथ पुनश्च परिवृत्याथ पुष्करारण्यवासिनः' ।   शिवि जनपद की राजधानी थी मध्यमिका - पुरातत्व अन्वेषण में नगरी बस्त

Historical Mayra Caves of Gogunda of Udaipur district- उदयपुर के गोगुन्दा की ऐतिहासिक मायरा की गुफा

  राजस्थान हमेशा से अपनी प्राचीन धरोहरों के लिए जाना जाता है। राजस्थान के ऐतिहासिक स्थलों में शामिल एक ऐसी ही धरोहर मायरा की गुफा का नाम लगभग गुमनाम सा है। यह गुफा उदयपुर जिले की अरावली की पहाड़ियों के जंगलों में विद्यमान है। मायरा की गुफा महाराणा प्रताप की राजतिलक स्थली ग्राम गोगुन्दा से तकरीबन 7-8 किलोमीटर दूर दुलावतों का गुढ़ा गाँव के जंगल में स्थित है। यह उदयपुर से करीब 45 किलोमीटर दूर है। इस स्थल पर पहुँचने के लिए गोगुन्दा से हल्दीघाटी लोसिंग सड़क पर गणेश जी का गुढ़ा गाँव से पूर्व सामने एक पहाड़ी रोड़ ऊपर की तरफ जाती है, जिससे वहां पहुंचा जा सकता है। महाराणा प्रताप और हल्दीघाटी के युद्ध से जुडी होने के कारण मायरा की गुफा राजस्थान के इतिहास में  महत्त्व रखती है। हल्दीघाटी की लड़ाई में इस गुफा का योगदान बड़ा अहम था।  मुग़ल शासक अकबर से हुए संघर्ष के दौरान महाराणा को राजमहलों से दूर रहकर अपना युद्ध जारी रखने तथा सुरक्षित रहने हेतु अनेक गुप्त व सुरक्षित स्थान तलाशने पड़े थे। इन्ही स्थानों में से एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान “मायरा की गुफा” है। शरीर की नसों जैसी

Portraiture of Rasikpriya books in Mewar - मेवाड़ में रसिकप्रिया ग्रंथों का चित्रांकन-

मेवाड़ में रसिकप्रिया ग्रंथों का चित्रांकन मेवाड़ में महाराणा जगत सिंह प्रथम , महाराणा अमर सिंह द्वितीय एवं महाराणा जय सिंह के काल में रसिकप्रिया ग्रन्थ का चित्रांकन किया गया। रसिक प्रिया नामक पद्यात्मक ग्रन्थ की रचना ब्रज भाषा के कवि केशव दास ने ओरछा नरेश के भाई महाराजा इन्द्रजीत सिंह के राज्याश्रय में 1591 ई. में की थी। इस महान रचना का विषय श्रृंगार के दोनों पक्ष संयोग और वियोग है। राधा कृष्ण की प्रेमलीला के लौकिक एवं आध्यात्मिक रहस्यों का उद्घाटन जयदेव के गीत गोविन्द के पश्चात् रसिक प्रिया में ही हुआ है। 16 वीं सदी में रचित इस ग्रन्थ की ख्याति शीघ्र ही दूर-दूर तक फैल गई और 17 वीं शताब्दी के मध्य तक यह राजस्थान में विभिन्न चित्र शैलियों के चित्रांकन की विषय वस्तु बन गया। मेवाड़ के अलावा मारवाड़, बूंदी, एवं बीकानेर शैलियों में भी रसिक प्रिया पर आधारित चित्र निर्मित हुए हैं। मेवाड़ में सर्वप्रथम महाराणा जगत सिंह प्रथम के काल में रसिक प्रिया का चित्रांकन हुआ। उदयपुर के राजकीय संग्रहालय में कृष्ण चरित्र के 327 लघु चित्र है, जिनमें सूरसागर का संग्रह भी है। इसी संग्रह में रसिक प्

Cultural achievements of Maharana Kumbha- महाराणा कुंभा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ -

कुंभा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ - मेवाड़ के राणाओं की विरासत में महाराणा कुम्भा एक महान योद्धा, कुशल प्रशासक, कवि, संगीतकार जैसी बहुमुखी प्रतिभाओं के धनी होने साथ-साथ विभिन्न कलाओं के कलाकारों तथा साहित्यसर्जकों के प्रश्रयदाता भी थे। इतिहासकार कुम्भा की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि महाराणा कुंभा के व्यक्तित्व में कटार, कलम और कला की त्रिवेणी का अद्भुत समन्वय था। लगातार युद्धों में लगे रहने के बावजूद 35 वर्ष लम्बा कुम्भा का काल सांस्कृतिक दृष्टि से मेवाड़ के इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है। निःसंदेह हम कह सकते हैं कि इतिहास में कुंभा का जो स्थान एक महान विजेता के रूप में है, उससे भी बड़ा व महत्त्वपूर्ण स्थान उसका स्थापत्य और विविध विद्याओं की उन्नति के पुरोधा के रूप में है। कुम्भा काल की वास्तुकला - कुंभा वास्तु व स्थापत्य कला का मर्मज्ञ था। कुम्भाकालीन सांस्कृतिक क्षेत्र में वास्तु-कला का महत्त्व सर्वाधिक है। इस काल में मेवाड़ ने वास्तुकला के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रगति की थी। उसकी स्थापत्य कला को हम निम्नांकित तीन भागों में बांट सकते हैं - 1. मंदिर                          

Maharana Kumbha and his political achievements - महाराणा कुम्भा एवं उनकी राजनीतिक उपलब्धियाँ -

महाराणा कुम्भा एवं उनकी राजनीतिक उपलब्धियाँ - महाराणा कुम्भा राजपूताने का ऐसा प्रतापी शासक हुआ है, जिसके युद्ध कौशल, विद्वता, कला एवं साहित्य प्रियता की गाथा मेवाड़ के चप्पे-चप्पे से उद्घोषित होती है। महाराणा कुम्भा का जन्म 1403 ई. में हुआ था। कुम्भा चित्तौड़ के महाराणा मोकल के पुत्र थे। उसकी माता परमारवंशीय राजकुमारी सौभाग्य देवी थी। अपने पिता चित्तौड़ के महाराणा मोकल की हत्या के बाद कुम्भा 1433 ई. में मेवाड़ के राजसिंहासन पर आसीन हुआ, तब उसकी उम्र अत्यंत कम थी। कई समस्याएं सिर उठाए उसके सामने खड़ी थी। मेवाड़ में विभिन्न प्रतिकूल परिस्थितियाँ थी, जिनका प्रभाव कुम्भा की विदेश नीति पर पड़ना स्वाभाविक था। ऐसे समय में उसे प्रतिदिन युद्ध की प्रतिध्वनि गूँजती दिखाई दे रही थी। उसके पिता के हत्यारे चाचा, मेरा (महाराणा खेता की उपपत्नी का पुत्र) व उनका समर्थक महपा पंवार स्वतंत्र थे और विद्रोह का झंडा खड़ा कर चुनौती दे रहे थे। मेवाड़ दरबार भी सिसोदिया व राठौड़ दो गुटों में बंटा हुआ था। कुम्भा के छोटे भाई खेमा की भी महत्वाकांक्षा मेवाड़ राज्य प्राप्त करने की थी और इसकी पूर्ति के लिए वह मांडू (मालवा) पह

राजस्थान में शिबि जनपद -Shibi Janpada in Rajasthan

राजस्थान में शिबि जनपद - मौर्य के बढ़ते हुए प्रभाव, सिकंदर के आक्रमण और इंडो-यूनानियों के आक्रमण से बाध्य होकर कई गण जातियाँ पंजाब छोड़कर राजस्थान आई थीं। उनमें से शिवि गण के लोग मेवाड़ के नगरी नामक स्थान पर राजस्थान में स्थानान्तरित हुए। काशीप्रसाद जायसवाल का मत है कि गण जातियों का पलायन उनका स्वतंत्रता के प्रति प्रेम को दर्शाता है। यूनानी क्लासिकल लेखकों, कर्टिअस, स्ट्रेबो तथा एरियन के अनुसार चौथी शताब्दी ई.पू. में सिकंदर के विदेश लौटते समय सिब्रोई (शिबि) जनजाति द्वारा उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया गया था। एरियन के अनुसार शिबिजन के निवासी वीर और साहसी थे। उनके पास 40 हजार पदाति तथा 3000 घुड़सवार सैनिक थे। वे जंगली जानवरों की खाल पहनते थे और उनके युद्ध पद्धति विचित्र थी। युद्ध में वे गदा और लाठियों का प्रयोग करते थे। क्लासिकल लेखकों के विवरण से तो ऐसा लगता है कि शिबि जाति के लोग असभ्य तथा बर्बर थे। संभवत: यह विवरण उनके पंजाब निवास का है, जबकि राजस्थान के शिबि सुसंस्कृत और संस्कार संपन्न थे। शिबि जाति का उल्लेख ऋग्वेद में अलिनो, पक्यो, भलानसो, और विषनियो के साथ आया है जि