राजस्थानी भाषा की प्रमुख बोलियां - उपबोलियां और भौगोलिक क्षेत्र-
कोई
भी
भाषा
कई
बोलियों
के
मिलने
से
बनती
है।
किसी
भाषा
में
बोलियों
की
अधिकता
उसकी
समृद्धता
मानी
जाती
है।
बोलियों
की
दृष्टि
से
राजस्थानी
अत्यंत
समृद्ध
और
सुदृढ़
भाषा
है।
राजस्थानी
भाषा
संपूर्ण
राजस्थान
प्रांत
के
निवासियों
के
साथ-साथ
भारत
भर
में
बसे
हुए
प्रवासी
राजस्थानियों
द्वारा
अपने
प्रतिदिन
के
कार्य-व्यवहार
में
बोली
जाती
है।
राजस्थानी
विश्व
की
समृद्धतम
भाषाओं
में
सोहलवां स्थान रखती
है।
इसको
बोलने
वालों
की
संख्या
दस
करोड़
के
लगभग
है।
विद्वान
राजस्थानी
भाषा
की
विभिन्न
विशेषताओं
के
कारण
देशी-विदेशी
इसकी
बोलियों,
साहित्य
और
व्याकरण
पर
महत्त्वपूर्ण
शोध
करते
रहे
हैं
और
अभी
तक
यह
परंपरा
बनी
हुई
है।
विद्वानों
के
शोध
और
विवेचना
से
स्पष्ट
होता
है
कि
राजस्थानी
भाषा
में
कई
बोलियां
सम्मिलित
है
जिनमें
बोलने
की
दृष्टि
से
अधिक
अंतर
नहीं
मिलता
है।
भाषा
वैज्ञानिक
कहते
हैं
कि
बोली
और
उपबोली
का
विभाजन
सभी
भाषाओ
में
मिलता
है।
राजस्थानी
की
बोलियां-उपबोलियां
उसकी
समृद्धता
और
विकास
का
सूचक
है।
बोली एवं उपबोली का अर्थ -
भाषा
वैज्ञानिकों
की
दृष्टि
में
भाषा
के
तीन
स्तर
बोली, विभाषा और भाषा होते
हैं
और
उनका
प्रारंभिक
स्वरूप
‘बोली’ को
माना
जाता
है।
प्रो.
कल्याणसिंह
शेखावत
के
अनुसार ‘बोली’ भाषा
का
पहला स्तर है
जिसका
मौखिक
स्वरूप
किसी
एक
निश्चित
भौगोलिक
क्षेत्र
में
रहने
वाले
निवासियों
के
अनुसार
सीमित
होता
है।
डॉ.
भोलानाथ
तिवारी
इसका
अर्थ
स्पष्ट
करते
हुए
लिखते
हैं
कि
‘बोली’
और
‘उपबोली’
उस
सीमित क्षेत्र की भाषा को
कहा
जाता
है,
जिसमें
उसे
बोलने
वाले
का
उच्चारण
लगभग
इक
जैसा
होता
है
तथा
जिसमें
रूप
रचना,
वाक्यों
की
बनावट,
शब्द
और
अर्थ
से
जुड़ी
हुई
खास
भिन्नता
नहीं
होती
है।
पश्चिमी
भाषाविद्
एडवर्ड सेपियर के
अनुसार
समय
के
साथ
कोई
विशिष्ट
बोली
भाषा
के
रूप
में
भी
बदल
सकती
है।
आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा
की
दृष्टि
में
भाषा
और
बोली
में
अधिक
अंतर
नहीं
होता
है
तथा
बोलियां
ही
वक्त
के
साथ
भाषा
में
रूपांतरित
होने की
क्षमता
रखती
है।
भाषा-
विज्ञान
का
नियम
है
कि
बोली
का
विकसित
स्वरूप
ही
भाषा
है।
इस
अर्थ
में
भाषा
के
अविकसित
रूप
को
‘बोली’
कहा
जाता
है।
बोली
का
स्वरूप
मौखिक
हाने
के
कारण
उसमें
व्याकरण
के
नियमों
में
नहीं
बांधा
जा
सकता
है।
विश्व
की
सभी
समृद्धतम
भाषाएं
बोलियों
व
उपबोलियों
से
विकसित
हुई
है।
वो भाषा समृद्ध मानी जाती है जिसमें कई सारी बोलियां-उपबोलियां होती है। जिस
तरह
हमारी
राष्ट्रभाषा
हिन्दी
में
अवधी,
मैथिली,
ब्रज,
खड़ी
बोली,
भोजपुरी,
हरियाणवी,
बुन्देलखण्डी
आदि
बोलियां
है,
उसी
तरह
राजस्थानी
भाषा
मारवाड़ी,
ढूंढाड़ी,
मेवाड़ी,
हाड़ौती,
शेखावटी,
मेवाती,
मालवी
और
वागड़ी
बोलियों
से
बनी
है।
जिस
तरह
राजस्थानी
बोलियों
में
थोड़े-थोड़े
अंतर
का
प्रश्न
है,
उसका
उत्तर
भाषा
विज्ञान
का
यह
सिद्धान्त
देता
है
कि
प्रति
पन्द्रह-बीस
किलोमीटर
की
दूरी के
पश्चात्
बोली
में
न्यून
अंतर
आ
ही
जाता
है।
इसके
लिए
लोक
में
कई
मान्यताओं
में
कहावतें
कही
जाती
है।
कई प्रचलित मान्यताओं में से ये कहावत अत्यंत प्रसिद्ध है-
‘‘बारै कोसां बोली पळटै, बन फळ पळटै पाकां।
बरस छतीसां जोबन पळटै, लखण न पळटै लाखा।।’’
राजस्थानी
भाषा
का
वर्षों
पुराना
साहित्य इसकी बोलियों की एकरूपता
का
सबसे
अनूठा
प्रमाण
है। आधुनिक
युग
के
राजस्थानी
भाषा
के
साहित्य
में
भाषा
का
‘मानक’ स्वरूप
उपयोग
में
लिया
जाता
है। अतः
हम
सार
रूप
में
कह
सकते
हैं
कि
भाषा
वैज्ञानिक
दृष्टि
से
परीक्षण
करने
पर
राजस्थानी
भाषा
अपनी
अलग-अलग
बोलियों
से
मिलकर
बनी
हुई
एक
समृद्ध
भाषा
सिद्ध
होती
है।
वक्ताओं की संख्या
के आधार पर राजस्थानी भाषा एवं इसकी बोलियों का देश में स्थान 7 वां तथा विश्व में
24 वां स्थान है।
राजस्थानी भाषा की बोलियों के संबंध में 1961 की जनगणना-
1961 की जनगणना में
राजस्थान की कुल 73 बोलियाँ ज्ञात हुई थी। जिनमे से 46
बोलियों में बोलने वालों की संख्या मात्र एक हज़ार से भी कम थी। शेष में से 9 को
बोलने वाले लोगों की संख्या 10 हजार से कम, 4 की 50 हजार से कम, 2 की एक लाख से
कम, 8 की 10 लाख से कम तथा अंतिम 4 की संख्या एक करोड़ से ज्यादा थी।
राजस्थानी भाषा की बोलियों के संबंध में विद्वानों के अलग-अलग वर्गीकरण-
राजस्थानी
भाषा
अपने
समृद्ध
साहित्य
के
कारण
सदैव
ही
देशी-विदेशी
विद्वानों
के
आकर्षण
का
केन्द्र
रही
है।
राजस्थानी
भाषा
और
साहित्य
पर
केन्द्रित
अनेक
शोध
और
अध्ययन
हुए
हैं
और
लगातार
होते
रहेंगे।
इसी
प्रकार
राजस्थानी
भाषा
की
बोलियों
पर
देशी-विदेशी
विद्वानों
ने
अपनी
शोधपरक
विवेचना
प्रस्तुत
की
है।
इस
अध्ययन
की
परंपरा
को
समझने
के
लिए
हमें
अलग-अलग
विद्वानों
की
शोधपरक
दृष्टि
को
सामने
रखना
पड़ेगा।
भारतीय
भाषाओं
के
तुलनात्मक
और
ऐतिहासिक
विवेचना
के
संबंध
में
सबसे
प्रथम
ग्रंथ
जॉन बीमज् का
मिलता
है,
जिसके
तीन
खण्ड
प्रकाशित
हुए
हैं।
इनमें
बीमज्
ने
राजस्थानी
को
स्वतंत्र
भाषा
नहीं
मानते
हुए
भूल
से
इसकी
गिनती
हिंदी
की
बोली
व
उपभाषा
की
है।
इसके
तीस-चालीस
वर्ष
पश्चात्
कर्नल जेम्स टॉड ने
राजस्थानी
भाषा
के
लिए
अत्यधिक
शोधपरक
जानकारी
एकत्रित
की
किंतु
उस
वक्त
यह
सामने
नहीं
आ
सकी।
बीमज्
टॉड
आदि के
पश्चात्
रामकृष्ण गोपाल भंडारकर, रूडोल्फ होरनले, केलॉग आदि
द्वारा
की
गई
विवेचनाओं
से
राजस्थानी
भाषा
की
बोलियों
के
बारे
में
अधिक
जाणकारी
नहीं
मिलती
है।
ग्रियर्सन का वर्गीकरण-
राजस्थानी
भाषा
की
बोलियों
के
संबंध
में
प्रथम
सराहनीय
शोध सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन
ने
सन्
1907-1908 में
अपनी
पुस्तक ‘लिंग्वस्टिक सर्वे ऑफ़ इण्डिया’
में
किया
है।
ग्रिर्यसन
ने
इसमें
राजस्थानी
भाषा
की
पांच
बोलियां
बताई
है,
जो
इस
प्रकार
है-
1.
पश्चिम राजस्थानी
2.
उत्तरी-पूर्वी राजस्थानी
3.
मध्यपूर्वी राजस्थानी
4.
दक्षिणी-पूर्वी राजस्थानी-मालवी
5.
दक्षिणी राजस्थानी
ग्रियर्सन
के
पश्चात्
इटली
निवासी
और
राजस्थानी
भाषा-साहित्य
के
विद्वान
डॉ. एल.
पी.
टैस्सीटारी
ने
राजस्थान
और
मालवा
की
बोलियों
के
दो
वर्ग
बनाते
हुए
विवेचन
प्रस्तुत
किया,
जो
इस
प्रकार
है-
डॉ. टैस्सीटोरी का विवेचन-
(1) पश्चिमी राजस्थानी - शेखावाटी,
जोधपुर
की
खड़ी
राजस्थानी,
थटकी,
थळी,
बीकानेरी,
बागड़ी,
खैराड़ी,
सिरोही
की
बोलियां,
गोडवाड़ी,
देवड़ावटी।
(2) पूर्वी राजस्थानी (ढूंढ़ाड़ी) - तोरावाटी, खड़ी
जयपुरी,
काठैड़ा,
राजावाटी,
अजमेरी,
किशनगढ़ी,
चौरासी,
नागरचाळ,
हाड़ौती।
प्रो. नरोत्तमदास स्वामी का वर्गीकरण-
राजस्थानी
भाषा
के
प्रसिद्ध
विद्वान
प्रो.
नरोत्तमदास
स्वामी
के
अनुसार
राजस्थानी
की
बोलियों
को
चार
वर्गों
में
बांटा
जा
सकता
है-
1.
पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी) - जोधपुर,
उदयपुर,
जैसलमेर,
बीकानेर
और
शेखावटी
क्षेत्र।
2.
पूर्वी राजस्थानी (ढूंढ़ाड़ी) -
जयपुर और
हाड़ौती
क्षेत्र।
3.
उत्तरी राजस्थानी - मेवाती, अहीरी
बोलियां।
4.
दक्षिणी राजस्थानी (मालवी) - मालवा
और
नीमाड़
की
बोलियां।
डॉ. मोतीलाल मेनारिया का वर्गीकरण-
डॉ.
मोतीलाल
मेनारिया
ने
अपनी
पुस्तक ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य’ में
राजस्थानी
की
पांच
बोलियां
मानते
हुए
उनका
उदाहरणों
सहित
परिचय
दर्शाया
है।
डॉ.
मेनारिया
का
वर्गीकरण
इस
प्रकार
है-
1.
मारवाड़ी
2.
ढूंढाड़ी
3.
मालवी
4.
मेवाती और बागड़ी।
सभी
विद्वानों
के
शोध
और
बोलियों
की
विशेषताओं
को
दृष्टिगत
रखते
हुए
राजस्थानी
भाषा
की
आठ
बोलियां
मानी
जा
सकती
है।
ये
बोलियां
इस
प्रकार
है-
1.
मारवाड़ी
2.
ढूंढ़ाड़ी
3.
हाड़ौती
4.
मेवाती
5.
वागड़ी
6.
मेवाड़ी
7.
माळवी
8.
शेखावाटी
राजस्थानी भाषा की प्रमुख बोलियां: बोली क्षेत्र और विशेषताएं
1. मारवाड़ी बोली -
मारवाड़ी
राजस्थान
के
मारवाड़
क्षेत्र
की
बोली
है।
इसका
पुराना
नाम
मरूभाषा, मरूगुर्जरी एवं डिंगळ है।
मारवाड़ी
का
बोली
क्षेत्र
जोधपुर,
बीकानेर,
जैसलमेर,
सिरोही
के
साथ-साथ
अजमेर-मेरवाड़ा-किशनगढ़,
सिंध
एवं
पंजाब
प्रांत
के
कुछ
भाग
तक
माना
जाता
है।
इस
प्रकार
मारवाड़ी
एक
लम्बे-चौड़े
भूभाग
में
बोली
जाती
है।
इसकी
खास-खास
उपबोलियों
में
थळी, जोधपुरी और बीकानेरी
गिनी
जाती
है।
बोली-क्षेत्र
और
साहित्य
दोनों
दृष्टि
से
मारवाड़ी
राजथानी
भाषा
की
सबसे
श्रेष्ठ
बोली
है।
आदिकाल
से
लेकर
अभी
तक
मारवाड़ी
को
राजस्थानी
भाषा
के
‘मानक
स्वरूप’
में
स्वीकार
किया
गया
है
तथा
ये
बोली
राजस्थानी
की
साहित्यिक
भाषा
रही
है।
साहित्यिक मारवाड़ी
को डिंगल कहा जाता है। समृद्ध
साहित्यिक
परंपरा
की
धनी
इस
बोली
में
डिंगळ
जैसी
अनूठी
काव्यशैली,
सौरठा
जैसे
छंद
और
विश्वभर
में
पसंद
किये
जाने
वाले
मांड
राग
जैसी
विशेषताएं
पाई
जाती है।
इस
बोली
में
संस्कृत,
प्राकृत,
अपभ्रंश
और
अरबी-फारसी
के
शब्दों
का
सहज
मेल
पाया
जाता
है।
मारवाड़ी बोली की विशेषताएं-
(अ)
सम्बन्धकारक
के
लिए
रा,
री,
रै,
रौ
प्रत्यय प्रयुक्त
होते हैं।
(ब)
संयोजक-अव्यव
के
रूप
में
‘नै’
कै
‘और’
का
प्रयोग
किया
जाता
है।
सम्प्रदान के लिए 'नै', अपादान के लिए 'सूं', 'ऊँ' रूप प्रचलित है।
(स)
तालव्य
‘श’
की
जगह
दन्ती
‘स’
का
प्रयोग
किया
जाता
है।
'न' के लिए 'ण' वर्ण का प्रयोग होता है।
(द)
वैदिक
‘ळ’
इसकी
विशेष
पहचान
है।
(य)
उत्तम एवं मध्यम पुरुष वाचक सर्वनामों के लिए 'म्हारो, थारो एवं बहुवचनात्मक रूपों
के लिए 'म्है, म्हाँ' का प्रयोग होता है।
(र)
सामान्यतः देवनागरी लिपि का प्रयोग होता है किन्तु बहीखातों में महाजनी लिपि का भी
प्रयोग किया जाता है।
मारवाड़ी बोली का उदाहरण-
‘‘सियाळै
री
हाड
कंपावती
सरदी।
बीं
सरदी
में
तो
घर
आळा
मुरदै
नै
ई
बारै
नीं
काढ़े
मुंह
अंधारै
आंख्यां
में
गीढ़
भर्योड़ो,
फाट्योड़ी
कांबळ
ओढ्योड़ो
भीखो
चूल्है
माथै
पाणी
तातो
करै
हो।
सामै
धापूड़ी
ठाष्ठा
नैं
दूवती
चाय
की
त्यारी
करै
ही।’’
(जूझती जूण-गोपाल
जोसी)
2. ढूंढाड़ी बोली -
ढूंढाड़ी
बोली
ढूंढाड़ी
क्षेत्र
में
बोली
जाती
है।
जयपुर
के
आसपास
बोले
जाने
के
कारण
इसे
‘जयपुरी बोली’ भी
कहा
जाता
है।
ढूंढाड़ी
जयपुर
के
साथ-साथ
किशनगढ़-टोंक
के
बहुत
से
भाग
के
अलावा
अजमेर-मेरवाड़ा
के
उत्तर-पूर्वी
क्षेत्र
तक
बोली
जाती
है।
पूर्वी राजस्थान के
मध्य-पूर्वी भाग को 'ढूंढाड़' कहा जाता है।
इसका ढूंढाड़ी
नाम
इस
क्षेत्र
के
नाम
‘ढूंढाड़’
के
आधार
पर
पड़ा।
‘ढूंढाड़
नामकरण’
का
आधार
‘ढूंढ’ या
‘ढूंढाकृति
परबत’
जो
जोबनेर
के
पास
में
स्थित
है,
माना
जाता
है।
ढूंढाड़ी
बोली
की
उपबोलियों
में
तोरावाटी,
काठैड़,
चौरासी,
नागरचोल
और
राजावाटी
उल्लेखनीय
है।
इस
बोली
में
गुजराती
और
मारवाड़ी
के
समान
प्रभाव
के
अलावा
ब्रज
की
विशेषताएं
भी
दिखाई
देती
है।
ढूंढाड़ी
बोली
साहित्यिक
परंपरा
की
दृष्टि
से
अत्यंत
समृद्ध
रही
है।
संत
कवि
दादूदयाल और
उनकी
शिष्य-परंपरा
के
कवियों
ने
ढूंढाड़ी
बोली
में
बहुत
सारे
साहित्य
का
सृजन
किया
है।
ढूंढाड़ी बोली की विशेषताएं -
(अ)
सम्बन्धकारक
के
लिए
का,
की,
कै
का
प्रयोग
किया
जाता
है।
(ब)
वर्तमानकाल
के
लिए
‘छै’,
भूतकाल
के
लिए
‘छी’
और
भविष्यकाल
के
लिए
स्यूं,
स्या,
ला,
ली
आदि
का
प्रयोग
किया
जाता
है।
(स)
सर्वनाम के तिर्यक रूप एकवचन में ऊ, ई, दूरवाचक के लिए ओ, यो, वो तथा स्त्री रूप
के लिए आ, या, वा का प्रयोग होता है।
जब, तब एवं कब के लिए जद, तद व कद को प्रयुक्त किया जाता है।
ढूंढाड़ी बोली का उदाहरण-
‘‘अेक
मूंजी
कनै
थोड़ो-सो
धन
छो।
ऊंनै
हर
भगत
यो
ही
डर
लग्यौ
रह
छो
दुनिया
भर
का
सगळा
चोर-धाड़ेती
म्हारा
ई
धन
पर
आंख
गाड़
मेली
छै।
कांई
ठा
कै
कद
आर‘र
लूट
लैला।’’ (राजस्थानी
भाषा
और
साहित्य-
मोतीलाल
मेनारिया)
3. हाड़ौती बोली-
हाड़ौती
कोटा,
बूंदी
और
झालावाड़
क्षेत्र
में
बोली
जाती
है।
इस
भूभाग
के
नाम
‘हाड़ौती क्षेत्र’ के
आधार
पर
ही
इस
बोली
का
नामकरण
हुआ
है।
उच्चारण
की
दृष्टि
से
हाड़ौती
पर
ढूंढाड़ी
का
पूर्ण
प्रभाव
दृष्टिगोचर
होता
है।
हाड़ौती
बोली
लोक
साहित्य
की
दृष्टि
से
अत्यंत
समृद्ध
रही
है।
हाड़ौती बोली की विशेषताएं -
(अ)
इसमें
सम्बन्धकारक
के
लिए
के,
का,
की,
को,
रे,
रा,
की,
रो,
णे,णा,
णी
का
प्रयोग
किया
जाता
है।
(ब)
हाड़ौती
बोली
में
‘इ’,
‘अे’ और
‘औ’
स्वरों
का
प्रयोग
नहीं
मिलता
है।
जैसे
‘इमली’
को
हाड़ौती
में
‘आम्ली’
उच्चारित
किया
जाता
है।
इसी
तरह
‘मिनख’
को
‘मनख’।
इसके
अलावा
अनुनासिकता’
(.) का भी
प्रयोग
मिलता
है
जैसे
घास-घांस,
राखस-रांखस,
काच-कांच
आदि।
हाड़ौती बोली का उदाहरण-
‘‘हाड़ौती
का
लोकनाटक
खुल्या
आसमान
कै
नीचै
होवै
छै,
कदी-कदी
मंच
पै
चांदणी
ताण
दै
छै।
लीलान्
को
टेम
तो
बंद्यो
छै
पण
खेल
कदीं
बी
कर्या
जा
सकै,
पण
करसाणी
सूं
नचींत होबो
जरूरी
छै।’’
(हाड़ौती का
लीला-ख्याल
पूर्वी
राजस्थान
की
बोली
में
है।)
4. मेवाती बोली -
मेवाती
उत्तर-पूर्वी
राजस्थान
की
बोली
है।
इसके
बोली-क्षेत्र
में
अलवर,
भरतपुर
के उत्तर-पश्चिमी
भाग
और
हरियाणा
के
गुड़गांव
के
दक्षिणी
भाग
को
सम्मिलित
किया
जाता
है।
इस
बोली
पर
ब्रज
और
खड़ी
बोली
का
पूरा
प्रभाव
नजर
आता
है।
मेवाती
की
विशेष
उपबोलियों
में
कठेर
मेवाती,
भयाना
मेवाती,
आरेज
मेवाती,
नहेड़ा
मेवाती,
बीघोता
मेवाती
और
खड़ी
मेवाती
गिनी
जाती
है।
इस
बोली
में
चरणदासी
पंथ
के
संत
कवियों
का
साहित्य
पाया
जाता
है।
इसके अलावा इस बोली में लालदास, दयाबाई, सहजो बाई, डूंगरसिंह भीक, शक्को आदि संत
कवियों ने भी रचनाये की है।
मेवाती की विशेषताएं-
(अ)
मेवाती
बोली
एक
‘ओकारान्त’
बोली
है।
इसमें
‘आकारान्त’
संज्ञाओं
और
भूतकालीन
‘आकारान्त’
क्रियाएं
‘ओकारान्त’
हो
जाती
है।
जैसें-
भेड़ियो,
मैंणो,
कागलो,
बिटोड़ो
आदि।
(ब)
‘अ’
स्वर
ध्वनि
का
‘आ’,
‘इ’, ‘उ’
में
बदलाव
मेवाती
बोली
की
विशेषता
है।
जैसे-
जलसा-जिलासा,
खजूर-खिजूर,
सरकारी-सिरकारी
आदि।
(स)
‘आकारान्त’
शब्दों
में
एकवचन
से
बहुवचन
बनाते
समय
‘अनुस्वार’
(.) हटाकर ‘न’
का
प्रयोग
किया
जाता
है। जैसे-
चेलां,
चेलान।
(द)
सम्बन्धकारक
के
लिए
का,
की,
के
आदि
का
प्रयोग
किया
जाता
है।
इसमें कर्मकारक में 'लू' विभक्ति एवं भूतकाल में
हा, हो, ही सहायक क्रियाओं का प्रयोग होता है।
मेवाती बोली का उदाहरण-
(अ)
‘‘तोकू
मैंनू
कही
ही,
वाड़ी
तू
आयो
नांय।’’
(स)
‘‘सुपना
में
छळ
ली
बन्दी
आधी-सी
रात,
पिया
मेरो
चैपड़
कौ
खिलारी
रै।
तोडूं
चरखा
दे
दूं
तो
में
आग
रचखो
मेकी
छाती
को
जळावा
रै!’’
5. वागड़ी बोली-
डूंगरपुर
और
बांसवाड़ा
के
क्षेत्र
को
‘वागड़’
नाम
से
जाना
जाता
है।
इसी
के
आधार
पर
यहां
की
बोली
का
नाम
‘वागड़ी’
हुआ।
यह
बोली
मेवाड़
के
दक्षिण
और
सूंथ
के
उत्तर
के अलावा मालवे की
पहाड़ियों तक में भी
बोली
जाती
है।
डॉ. ग्रियर्सन
और
डॉ.
दिनेश
आदि
विद्वानों
ने
इस
बोली
को
‘भीली’ नाम
दिया
है।
वागड़ी
बोली
पर
गुजराती
का
बहुत
प्रभाव
नजर
आता
है।
वागड़ी
लोक
साहित्य
की
दृष्टि
से
अत्यंत
समृद्ध
है।
इस
बोली
के
साहित्यकारों
ने
आधुनिक
राजस्थानी
साहित्य
में
भी
काफी
यश
प्राप्त
किया
है।
वागड़ी की विशेषताएं-
(अ)
इसमें 'च' व 'छ' को 'स' के रूप में तथा 'स' को 'ह' के रूप में प्रयुक्त किया जाता
है। जैसे- 'चूकना' को 'सूकना', 'छम-छम' को 'सम-सम' बोलना तथा 'साड़ी' को 'हाड़ी' व
'समझ्यो' को 'हमझ्यो' उच्चारित करना।
(ब)
भूतकालिक सहायक क्रिया 'था' के स्थान पर 'हतो' का रूप प्रयुक्त होता है।
(स)
तुम के लिए 'तम', तुम्हारे के लिए 'तमारे' आदि का प्रयोग।
(द)
गुजराती के प्रभाव से का, की, के हेतु ना, नी, ने का प्रयोग जैसे 'आज की व कल की'
के लिए 'आज नी' , 'काल नी' ।
वागड़ी बोली का उदाहरण-
‘‘अॅणनै
मोटे
भागे
सभ्यता
नी
गणतकी
मए
लई
शकाय
है जेनूं
के
मने
आजनी
फेशन
ना
परमणो
संस्कृति
ने
बजाय
सभ्यता
ने
संस्कृति
नो
शेरौ
(मुखोटो) पेरावी,
नै,
अणगमतेस,
वर्ण
करवुं
पड़ी
र्यू
है।’’
(बागड़ नी
संस्कृति,
पृ.51)
6. मेवाड़ी बोली-
मेवाड़
क्षेत्र
के
दक्षिणी-पूर्वी
भाग
को
छोड़
कर
संपूर्ण
मेवाड़
और
उसके
सीमांत
प्रदेशों
के
कुछेक
भागों
(नीमच-मध्यप्रदेश)
में
मेवाड़ी
बोली
जाती
है।
इसका
असली
रूप
मेवाड़
के
गांवों
में
सुना
जा
सकता
है,
जहां
यह
शुद्ध
रूप
में
प्रयुक्त
होती
है।
शहरी
मेवाड़ी
पर
हिन्दी,
उर्दू
और
अंग्रेजी
भाषाओं
का
प्रभाव
बढ़ता
जा
रहा
है।
मेवाड़ी
साहित्यिक
दृष्टि
से
समृद्ध
परंपरा
की
धनी
रही
है।
महाराणा
कुंभा
(सं. 1490-1525) ने
इसी
बोली
में
चार
नाटकों
का
सृजन
किया
था।
उसके
बाद
मेवाड़ी
बोली
में
कई
विशिष्ट
साहित्यकारों
की
परंपरा
सामने
आई,
जिसमें
हेमरतन
सूरि,
किसना
आढा,
महाराज
चतुरसिंह
जी
बावजी,
नाथूसिंह
महियारिया,
रामसिंह
सोलंकी,
रानी
लक्ष्मीकुमारी
चूण्डावत
आदि
नाम
उल्लेखनीय
है।
डॉ.
ब्रजमोहन
जावलिया
ने
मेवाड़ी
की
दो
उपबोलियां पर्वती और
मैदानी बताई
है।
मेवाड़ी बोली की विशेषताएं-
(अ)
मेवाड़
में
‘इ-कार’
और
‘उ-कार’
के
स्थान
पर
‘अ-कार’
की
प्रवृति
पाई
जाती
है।
जैसे-
‘हाजिर’
के
स्थान
पर
‘हाजर’,
मिनख
के
स्थान
पर
मनख,
मालूम
के
स्थान
पर
मालम,
विराजो
के
स्थान
पर
वराजौ
आदि।
(ब)
भूतकालिक
सहायक
क्रियाओं
के
लिए
हा,
ही,
हो
और
भविष्यत्
कालिक
क्रियाओं
के
लिए
गा,
गी,
गे
का
प्रयोग
किया
जाता
है।
इसके
अलावा
भविष्यत्कालिक
क्रियाओं
में
प्रसंगानुसार
ला,
ली,
लो
का
प्रयोग
भी
किया
जाता
है।
जैसे-
'बहुत सारे लोग जा रहे थे' के लिए 'घणा मनख जाई रिया हा' और 'वो भोजन करेगा' के
लिए 'वो जीमण करेला' का प्रयोग।
(स)
मेवाड़ी
बोली
में
सम्बन्धकारक
के
रूप
में
‘का,
की,
कै’
के
साथ
में
‘रा,
री,
रै,
रौ’
का प्रयोग
भी
होता
है।
जैसे-
‘अंबालाल
का
बेटा’
को
‘अंबालाल
रौ
बेटो’
तथा
‘अंबालाल
के
चार
बेटे’
को
‘अंबालाल
रा
चार
बेटा’
कहा
जाता
है।
मेवाड़ी बोली का उदाहरण-
‘‘पोह
रो
मींनो।
ईयां
ही
ठंड
घणी
और
आज
रा
ओळा
मेह
सूं
तो
चोगणी
व्हैगी।
वासदी
सुलगाय
तावै।
टाबर
मावों
ने
नीं
छोडै़।
डोकरा
डोकरी
बैठ्या
‘‘राम-राम’’
करता,
इन्दर
सूं
कोप
कम
करणै
री
औरदास
करै।
(मांझल रात,
पृ.88)
7. मालवी बोली-
उज्जैन
के
आस-पास
का
क्षेत्र
मालवा
नाम
से
जाना
जाता
है।
इस
क्षेत्र
में
प्रचलित
बोली
का
नाम
मालवी
है।
इस
क्षेत्र
के
पश्चिम
में
प्रतापगढ़
(राजस्थान),
रतलाम
(मध्यप्रदेश),
दक्षिण-पश्चिम
में
इन्दौर,
उत्तर-पश्चिम
में
नीचम
और
उत्तर
में
ग्वालियर
के
कुछ
भाग
में
मालवी
बोली
का
उपयोग
होता
है।
मालवी
में
मारवाड़ी
और
ढूंढाड़ी
की
विशेषताएं
देखने
को
मिलती
है,
साथ
ही
शेखावाटी
बोली
का
प्रभाव
इस
बोली
की
मिठास
में
दृष्टिगोचर
होता
है।
मालवी
बोली
के
शब्द
भण्डार
पर
मराठी
का
प्रभाव
भी
दिखाई
देता
है।
इसकी
उपबोलियों
में
नीमाड़ी,
उमढवाड़ी,
रतलामी,
सोंधवाड़ी
आदि
प्रमुख
है।
लोक
साहित्य
की
दृष्टि
से
मालवी
पूर्णरूपेण
समृद्ध
बोली
है।
मालवी बोली की विशेषताएं-
(अ)
काल
को
दर्शाने
के
लिए
इसमें
‘हो’,
‘ही’ के
स्थान
पर
‘थो’,
‘थी’ का
प्रयोग
किया
जाता
है।
(ब)
‘घ’
के
स्थान
पर
‘य’
या
‘व’
ध्वनि
मिलती
है।
(स)
‘स’
के
स्थान
पर
‘ह’
का
प्रयोग
किया
जाता
है।
मालवी बोली का उदाहरण-
‘‘अेक
मूंजी
रै
कनै
थौड़ो
माल
थो।
वणी
नैं
हदांई
ओ
डर
लाग्यो
रेतो
थो
के
आखी
दुनिया
रा
चोर
नै
डाकू
म्हाराज
धन
पर
आंख्या
लगायां
थका
है,
नी
मालम
कही
आई
नै
वी
लूटी
लेगा।’’
8. शेखावाटी बोली-
राजस्थान
प्रांत
के
उत्तर-पश्चिमी
क्षेत्र
की
सीकर
झुंझुनु
और
चुरू
की
भूमि
शेखावाटी
नाम
से
जानी
जाती
है।
क्षेत्र
के
नाम
के
आधार
पर
ही
इस
बोली
का
नाम
‘शेखावटी’
हो
गया।
वर्तमान
के
सीकर,
झुंझुनु
और
चुरू
के
कुछ
क्षेत्र
तक
शेखावाटी
बोली
जाती
है।
यह
क्षेत्र
राजस्थान
की
साहित्यिक
और
सांस्कृतिक
समृद्धता
का
केन्द्र
माना
जाता
है। राजस्थानी
साहित्य
के
आदिकाल
से
लेकर
आधुनिक
काल
तक
इस
क्षेत्र
की
अनूठी
साहित्यिक
परंपरा
रही
है। शेखावाटी
बोली
में
कोई
उपबोली
नहीं
मानी
जाती
है।
लेकिन
इस
पर
मारवाड़ी
और
ढूंढाड़ी
बोली
का
पूरा
प्रभाव
दिखाई
देता
है।
शेखावाटी बोली की विशेषताएं-
(अ)
भविष्यतकालिका
क्रिया
के
लिए
सा,
सी
का
प्रयोग
किया
जाता
है।
(ब)
सम्बन्ध
कारक
के
लिए
‘का,
की,
के’
का
प्रयोग
किया
जाता
है।
शेखावाटी बोली का उदाहरण-
‘‘मेरा
बाप
का
नौकर-चाकरां
नै
रोटी
घणी
और
मैं
भूको
मरूं।
में
उठस्यूं
और
मेरै
बाप
कै
कनै
जास्यूं
और
बै
नै
केस्यूं
बाप,
मैं
रामजी
को
पाप
कर्यौ
और
मैं
तेरो
बेटो
कुहवावण
जागो
कोनी।
तेरै
नौकरां
में
अेक
मत्रौ
बी
राख
ले।’’
(राजस्थान का
भाषा
सर्वेक्षण,
पृ.129)
उक्त बोलियों के
अलावा एक अन्य महत्त्वपूर्ण व लोकप्रिय बोली 'अहीरवाटी' है
जिसके बारें में भी यहाँ चर्चा जरुरी है।
अहीरवाटी
बोली -
पूर्वी राजस्थान की
दूसरी महत्त्वपूर्ण बोली अहीरवाटी है। इसका क्षेत्र राजस्थान के अलवर जिले की
बहरोड़, मुंडावर तहसील तथा किशनगढ़ का पश्चिमी भाग है। इस बोली के प्रमुख
विद्वान कवि जोधराज थे जो राजा चंद्रभान सिंह के दरबारी कवि थे। उन्होंने हम्मीर
रासो महाकाव्य की रचना की। इस बोली में शंकर
राव ने 'भीम विलास' ग्रन्थ की रचना की थी।
प्राचीनकाल में अहीर
जाति के इस क्षेत्र में आबाद हो जाने से इसे ''अहीरवाटी
या अहीरवाल'' कहा जाने लगा। ऐतिहासिक दृष्टि से
इस क्षेत्र को 'राठ' तथा बोली को 'राठी' भी कहा जाता है।
अहीरवाटी बोली की
विशेषताएं-
1. पश्चिमी
राजस्थानी के प्रभाव से 'न' को 'ण' बोला जाता है।
2. वर्तमान काल की
सहायक क्रिया के लिए सूं, सां, सैं का, भूतकाल के लिए थो, था, थी का एवं
भविष्यतकाल के लिए गो, गा, गी का प्रयोग किया जाता है।
3. असामयिक क्रिया
के लिए 'कै'' रूप का प्रयोग होता है। जैसे- जाकै - जाकर
के, खाकै - खाकर के आदि।
4. वाला अर्थ के लिए
'णो' प्रत्यय का प्रयोग
होता है।
अहीरवाटी बोली का उदाहरण-
1.
''जच्चा की चटोरी जीभ जलेबी भांवै सैं, हे सुसरा नै
गिरवी धरदे हे सासू का लगादे ब्याज जलेबी भांवैं सैं।''
रांगड़ी बोली-
रांगड़ी बोली राजपूतों में प्रचलित
मारवाड़ी और मालवी के सम्मिश्रण से बनी है तथा राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी भाग में
बोली जाती है।
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