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प्राचीन राजस्थान में आर्य तथा मौर्य -

आर्य तथा प्राचीन राजस्थान -

मरुधरा की सरस्वती और दृषद्वती जैसी नदियाँ आर्यों की प्राचीन बस्तियों की शरणस्थली रही है। ऐसा माना जाता है कि यहीं से आर्य बस्तियाँ कालान्तर में दोआब आदि स्थानों की ओर बढ़ी। इन्द्र और सोम की अर्चना में मन्त्रों की रचना, यज्ञ की महत्ता की स्वीकृति और जीवन-मुक्ति का ज्ञान आर्यों को सम्भवतः इन्हीं नदी घाटियों में निवास करते हुए हुआ था। महाभारत तथा पौराणिक गाथाओं से प्रतीत होता है कि जांगल (बीकानेर), मरुकान्तार (मारवाड़) आदि भागों से बलराम और कृष्ण गुजरे थे, जो आर्यों की यादव शाखा से सम्बन्धित थे। जनपदों का युग आर्य संक्रमण के बाद राजस्थान में जनपदों का उदय होता है, जहाँ से हमारे इतिहास की घटनाएँ अधिक प्रमाणों पर आधारित की जा सकती हैं। सिकन्दर के अभियानों से आहत तथा अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने को उत्सुक दक्षिण पंजाब की मालव, शिवि तथा अर्जुनायन जातियाँ, जो अपने साहस और शौर्य के लिए प्रसिद्ध थी, अन्य जातियों के साथ राजस्थान में आई और सुविधा के अनुसार यहाँ बस गयीं। इनमें भरतपुर का राजन्य और मत्स्य जनपद, नगरी का शिवि जनपद, अलवर का शाल्व जनपद प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त 300 . पू. से 300 . के मध्य तक मालव, अर्जुनायन तथा यौधेयों की प्रभुता का काल राजस्थान में मिलता है। मालवों की शक्ति का केन्द्र जयपुर के निकट था, कालान्तर में यह अजमेर, टोंक तथा मेवाड़ के क्षेत्र तक फैल गए। भरतपुर-अलवर प्रान्त के अर्जुनायन अपनी विजयों के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। इसी प्रकार राजस्थान के उत्तरी भाग के यौधेय भी एक शक्तिशाली गणतन्त्रीय कबीला था। यौधेय संभवतः उत्तरी राजस्थान की कुषाण शक्ति को नष्ट करने में सफल हुए थे, जो रुद्रदामन के लेख से स्पष्ट है। लगभग दूसरी सदी ईसा पूर्व से तीसरी सदी ईस्वी के काल में राजस्थान के केन्द्रीय भागों में बौद्ध धर्म का काफी प्रचार था, परन्तु यौधेय तथा मालवों के यहाँ आने से ब्राह्मण धर्म को प्रोत्साहन मिलने लगा और बौद्ध धर्म के हृास के चिह्न दिखाई देने लगे। गुप्त राजाओं ने इन जनपदीय गणतंत्रों को समाप्त नहीं  किया, परन्तु  इन्हें अर्द्ध- आश्रित रूप में बनाए रखा। ये गणतन्त्र हूण आक्रमण के धक्के को सहन नहीं कर पाये और अन्ततः छठी शताब्दी आते-आते यहाँ से सदियों से पनपी गणतन्त्रीय व्यवस्था सर्वदा के लिए समाप्त हो गई। 

मौर्य तथा प्राचीन राजस्थान-

राजस्थान के कुछ भाग मौर्यों के अधीन या प्रभाव क्षेत्र में थे। अशोक का बैराठ का शिलालेख तथा उसके उत्तराधिकारी कुणाल के पुत्र सम्प्रति द्वारा बनवाए गए मन्दिर मौर्यों के प्रभाव की पुष्टि करते हैं। कुमारपाल प्रबन्ध तथा अन्य जैन ग्रंथों से अनुमानित है कि चित्तौड़ का किला चित्रांग तालाब मौर्य राजा चित्रांग का बनवाया हुआ है। चित्तौड़ से कुछ दूर मानसरोवर नामक तालाब पर राज मान का, जो मौर्यवंशी माना जाता है, वि. सं. 770 का शिलालेख कर्नल टॉड को मिला, जिसमें माहेश्वर, भीम, भोज और मान ये चार नाम क्रमशः दिए हैं। कोटा के निकट कणसुवा (कसुंआ) के शिवालय से 795 वि. सं. का शिलालेख मिला है, जिसमें मौर्यवंशी राजा धवल का नाम है। इन प्रमाणों से मौर्यों का राजस्थान में अधिकार और प्रभाव स्पष्ट होता है। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत की राजनीतिक एकता पुनः विघटित होने लगी। इस युग में भारत में अनेक नए जनपदों का अभ्युदय हुआ। राजस्थान में भी अनेक राजपूत वंशों ने अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिए थे, इसमें मारवाड़ के प्रतिहार और राठौड़, मेवाड़ के गुहिल, सांभर के चौहान, आमेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी इत्यादि प्रमुख हैं। शिलालेखों के आधार पर हम कह सकते हैं कि छठी शताब्दी में मण्डोर के आस-पास प्रतिहारों का राज्य था और फिर वही राज्य आगे चलकर राठौड़ों को प्राप्त हुआ। लगभग इसी समय सांभर में चौहान राज्य की स्थापना हुई और धीरे-धीरे वह राज्य बहुत शक्तिशाली बन गया। पांचवीं या छठी शताब्दी में मेवाड़ और आसपास के भू-भाग में गुहिलों का शासन स्थापित हो गया। दसवीं शताब्दी में अर्थूंणा तथा आबू में परमार शक्तिशाली बन गये। बारहवीं तथा तेरहवीं शताब्दी के आस-पास तक जालौर, रणथम्भौर और हाड़ौती में चौहानों ने पुनः अपनी शक्ति का संगठन किया परन्तु उसका कहीं-कहीं विघटन भी होता रहा। (संदर्भ- माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान की राजस्थान अध्ययन की पुस्तक)

(संदर्भ- माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान की राजस्थान अध्ययन की पुस्तक)

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