राजस्थान का हस्तशिल्प मीनाकारी -
ज्वैलरी पर मीनाकारी के लिए जयपुर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। जयपुर में मीनाकारी की कला महाराजा मानसिंह प्रथम (1589-1614) द्वारा लाहौर से लाई गई थी।
मीनाकारी का कार्य मूल्यवान व अर्द्धमूल्वान रत्नों तथा सोने व चांदी के आभूषणों पर किया जाता है। परंपरागत रूप से सोने पर मीनाकारी के लिए काले, नीले गहरे पीले नारंगी एवं गुलाबी रंग का प्रयोग किया जाता है। लाल रंग बनाने में जयपुर के मीनाकार कुशल हैं। मीनाकारी में फूल पत्ती, मोर आदि का प्रायः अंकन किया जाता है। जयपुर के अलावा राजसमंद जिले का नाथद्वारा भी मीनाकारी के लिए देश विदेश में प्रसिद्ध है। यहाँ पर भी सोने के आभूषणों और खिलौनों पर बड़ी सुंदर मीनाकारी की जाती है। यहाँ चाँदी के खिलौनों, बर्तनों एवं आभूषणों पर भी मीनाकारी की जाती है। कोटा के रेतवाली क्षेत्र में काँच पर विभिन्न रंगों से मीनाकारी की जाती है। बीकानेर में ऊँट की खाल पर स्वर्ण मीनाकारी की जाती है जिसे उस्ता कला के नाम से जाना जाता है। प्रतापगढ़ में भी यह कार्य दक्षता के साथ किया जाता है।
अन्य विशिष्ट तथ्य-
मीनाकारी की सर्वोत्कृष्ट कृति जयपुर में तैयार की जाती है जबकि कागज जैसे पतले परत पर मीनाकारी का कार्य बीकानेर के मीनाकार करते हैं।
थेवा कला (कांच के पर स्वर्ण मीनाकारी) के लिए प्रतापगढ़ प्रसिद्ध है।
संगमरमर पर मीनाकारी का कार्य जयपुर में होता है।
कुंदन कला (सोने के आभूषणों में रत्नों की जड़ाई) का कार्य जयपुर तथा नाथद्वारा में बहुतायत से होता है।
पीतल पर मीनाकारी का कार्य जयपुर तथा अलवर में बहुतायत से होता है।
पीतल पर सूक्ष्म मीनाकारी के कार्य को "मुरादाबादी काम" कहा जाता है।
कोफ्तगिरी- फौलाद (स्टील) से बनी वस्तुओं पर सोने के तारों की जड़ाई को कोफ्तगिरी कहते हैं। कोफ्तगिरी का कार्य जयपुर तथा अलवर में अत्यधिक होता है।
कोफ्तगिरी की कला दमिश्क से पंजाब व गुजरात होते हुए राजस्थान में आई थी।
तहनिशा - तहनिशा के कार्य में डिजाइन को गहरा खोद कर उसमें तार भर दिए जाते हैं। अलवर के तारसाज तथा उदयपुर के सिकलीगर यह कार्य करते हैं।
बीकानेर में चांदी के डिब्बे तथा किवाड़ की जोड़िया बनाने का काम बहुत प्रसिद्ध है।
उदयपुर में व्हाइट मेटल के पशु पक्षी व फर्निचर बनाया जाता है।
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