स्वांग-
राजस्थान के लोकनाट्य रूपों में एक परम्परा 'स्वांग' की भी है। किसी रूप को अपने में आरोपित कर उसे प्रस्तुत करना ही स्वांग है। स्वांग में किसी रूप की प्रतिछाया रहती है। इस दृष्टि से स्वांग का अर्थ किसी विशेष, ऐतिहासिक, पौराणिक चरित्र या लोक समाज में प्रसिद्ध चरित्र या देवी देवता की नकल में मेकअप करना, उसी अनुसार वेशभूषा पहनना एवं उसी के अनुरूप अभिनय करना है। ये स्वांग असल की नकल होते हुए भी इतने जीवंत होते हैं कि ये असल होने का भ्रम देते हैं। कुछ जातियों और जनजाति के लोग तो स्वांग करने का पेशा अपनाए हुए हैं। यह एक ऐसी विधा है जिसे एक ही चरित्र सम्पन्न करता है। परन्तु आधुनिक प्रचार माध्यमों के विकसित हो जाने से यह लोकनाट्य रूप शहर से दूर गाँव की धरोहर रह गया है व इसे केवल शादियों और त्यौहार के अवसर पर ही दिखलाया जाता है। स्वांग के कुछ उदाहरण निम्नलिखित है -
1. होली के अवसर पर पूरे शेखावटी क्षेत्र में गींदड़ नाची जाती है जिसमें भी विविध स्वांग रचे जाते हैं।
2. होली के दूसरे दिन होली खेलने के साथ ही कई शहरों में लोग स्वांग धारण कर सवारी भी निकालते हैं जैसे उदयपुर में तेली लोगों की 'डाकी की सवारी'। नाथद्वारा में होली के दूसरे दिन शाम को 'बादशाह की सवारी' निकाली जाती है। उदयपुर में जमरा बीज पर मीणा औरतों द्वारा रींछ व शेर का स्वांग किया जाता है।
3. चैत्र कृष्ण त्रयोदशी को भीलवाड़ा के मांडल में निकाला जाने वाला नारों ( नाहरों या शेरों ) का स्वांग बहुत प्रसिद्ध है। इसमें आदिवासी लोग शेर का स्वांग करते हैं तथा उनके पीछे - पीछे शिकारी तीर-कमान लिए चलते हैं। वाद्य के रूप में इतने बड़े - बड़े ढोल बजाए जाते हैं कि इन्हें चार लोगों को पकड़ना पड़ता है।
4. भरतपुर की स्वांग विधा -
स्वांग भरतपुर की पुरानी लोकनाट्य कला है। यह विधा हास्य प्रधान होती है जिसमें विचित्र वेशभूषाओं में कलाकार हँसी ठट्ठों के द्वारा लोगों का मनोरंजन करते हैं। यहाँ यह कला संगीत, नृत्य, अभिनय और वाद्य यंत्रों के उपयोग के कारण नौटंकी कला की रंगत में रंगी नजर आती है। इसका मंचन भी खुले स्थान में किया जाता है। स्वांग कलाकारों के अभिनय के लिए दो तख्त डाल कर उस पर चादर बिछा दी जाती है जिस पर हारमोनियम, ढोलक, नक्कारा व ढपली वादक एक कोने में बैठ जाते हैं। स्वांग कलाकार विभिन्न वेशभूषा में स्वांग भर कर आपसी संवादों व गीतों के द्वारा लोगों का मनोरंजन करते हैं।
5. भरतपुर में हुरंगों व लट्ठमार होली का आयोजन -
फाल्गुन माह में बसंत और होली पर भरतपुर क्षेत्र में जगह - जगह ' हुरंगों ' का आयोजन होता है जिसमें स्त्री - पुरुष विभिन्न स्वांग भरकर अलग - अलग मुद्राएं बनाते हुए लोगों का मनोरंजन करते हैं। साथ ही इसमें स्त्रियों की टोलियां ब्रज रसिया व होरी गीत गाते हुए पुरुषों पर रंग व गुलाल की वर्षा करती है तथा बड़े - बड़े लट्ठों से उन पर वार भी करती है। इसे ही ब्रज की लट्ठमार होली भी कहते हैं। इस समय पुरुष बम बजाते हुए नाचते है।
1. होली के अवसर पर पूरे शेखावटी क्षेत्र में गींदड़ नाची जाती है जिसमें भी विविध स्वांग रचे जाते हैं।
2. होली के दूसरे दिन होली खेलने के साथ ही कई शहरों में लोग स्वांग धारण कर सवारी भी निकालते हैं जैसे उदयपुर में तेली लोगों की 'डाकी की सवारी'। नाथद्वारा में होली के दूसरे दिन शाम को 'बादशाह की सवारी' निकाली जाती है। उदयपुर में जमरा बीज पर मीणा औरतों द्वारा रींछ व शेर का स्वांग किया जाता है।
3. चैत्र कृष्ण त्रयोदशी को भीलवाड़ा के मांडल में निकाला जाने वाला नारों ( नाहरों या शेरों ) का स्वांग बहुत प्रसिद्ध है। इसमें आदिवासी लोग शेर का स्वांग करते हैं तथा उनके पीछे - पीछे शिकारी तीर-कमान लिए चलते हैं। वाद्य के रूप में इतने बड़े - बड़े ढोल बजाए जाते हैं कि इन्हें चार लोगों को पकड़ना पड़ता है।
4. भरतपुर की स्वांग विधा -
स्वांग भरतपुर की पुरानी लोकनाट्य कला है। यह विधा हास्य प्रधान होती है जिसमें विचित्र वेशभूषाओं में कलाकार हँसी ठट्ठों के द्वारा लोगों का मनोरंजन करते हैं। यहाँ यह कला संगीत, नृत्य, अभिनय और वाद्य यंत्रों के उपयोग के कारण नौटंकी कला की रंगत में रंगी नजर आती है। इसका मंचन भी खुले स्थान में किया जाता है। स्वांग कलाकारों के अभिनय के लिए दो तख्त डाल कर उस पर चादर बिछा दी जाती है जिस पर हारमोनियम, ढोलक, नक्कारा व ढपली वादक एक कोने में बैठ जाते हैं। स्वांग कलाकार विभिन्न वेशभूषा में स्वांग भर कर आपसी संवादों व गीतों के द्वारा लोगों का मनोरंजन करते हैं।
5. भरतपुर में हुरंगों व लट्ठमार होली का आयोजन -
फाल्गुन माह में बसंत और होली पर भरतपुर क्षेत्र में जगह - जगह ' हुरंगों ' का आयोजन होता है जिसमें स्त्री - पुरुष विभिन्न स्वांग भरकर अलग - अलग मुद्राएं बनाते हुए लोगों का मनोरंजन करते हैं। साथ ही इसमें स्त्रियों की टोलियां ब्रज रसिया व होरी गीत गाते हुए पुरुषों पर रंग व गुलाल की वर्षा करती है तथा बड़े - बड़े लट्ठों से उन पर वार भी करती है। इसे ही ब्रज की लट्ठमार होली भी कहते हैं। इस समय पुरुष बम बजाते हुए नाचते है।
बहरूपिया कला-
यह कला संपूर्ण राजस्थान में प्रचलित है। बहुरूपिए अपना रूप चरित्र के अनुसार बदलने तथा उसी के अनुरूप अभिनय करने में माहिर होते हैं । अपने मेकअप और वेषभूषा की सहायता से वे प्राय: वही चरित्र लगने लग जाते हैं, जिसके रूप की नकल वह करते हैं। कई बार तो असल और नकल में भेद भी नहीं कर पाते हैं और लोग चकरा जाते हैं। किसी गाँव में आ जाने पर ये बहुत दिनों तक बालकों, वृद्धों सहित सभी नर-नारियों का मनोरंजन करते हैं। ये प्राय: शादी-ब्याह या मेलों-उत्सव आदि के अवसर पर गाँव में पहुँचते हैं। ये अपनी नकलची कला में अत्यंत ही दक्ष होते हैं। देवी - देवताओं, इतिहास पुरुषों व महापुरुषों का रूप धारण करने के अलावा ये गाँव के धनी-मानी लोगों की भी नकल करते हैं। गाँव के बोहरा, सेठजी, बनिया आदि भी इनके मुख्य पात्र होते हैं। पौराणिक ग्रंथों में भी इस कला के प्रचलित होने के प्रमाण मिलते हैं। हिन्दू राजाओं तथा मुगल बादशाह ने भी इस कला को उचित प्रश्रय दिया था। बहरूपिया कला राजस्थान की अपनी विशेष कला है किन्तु आज के विकसित तकनीकी समाज में यह कला लगातार कम होती जा रही है। इस विलुप्तप्राय: कला का सबसे नामी कलाकार केलवा का परशुराम है।
भीलवाड़ा के जानकीलाल भाँड 'बहरूपिया ' भी राजस्थान में प्रसिद्ध है और उसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक इस कला को पहुँचाया है। उसने दिल्ली में आयोजित भारत का 'अपना उत्सव', लंदन में आयोजित 'इंटरनेशनल फेस्टिवल ऑफ स्ट्रीट म्यूजिक' में राजस्थान का प्रतिनिधित्व भी किया तथा अनेक स्वांग का प्रदर्शन कर मनोरंजन किया। अपना उत्सव में तो वे फकीर के वेश में पहुंचे तो सुरक्षाकर्मी उन्हें भ्रमवश बाहर निकालने लग गए थे। वे उनके परिचय पत्र पर भी विश्वास नहीं कर रहे थे।
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